मुकेश राठौर
किसी भी राष्ट्र के विकास में सड़कों का महत्वपूर्ण योगदान होता है, क्योंकि विकास वायु या जलमार्ग से नहीं अपितु सड़क के रास्ते आता है। पगडंडी या गली के मुकाबले सड़क सैकड़ों लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता रखती है। सड़क कहां नहीं होती! व्यवस्था और न्याय के मंदिरों से लेकर आरोग्य और विद्या के मंदिरों तक। अब तो गांव, मजरे, टोलों तक सड़कें पहुंच गई हैं खेत, खलिहान, झोपड़ियों तक।
सड़क भले जोड़ने का काम करती हों लेकिन टुकड़े-टुकड़े सड़क को जोड़ने का काम कोई करता है तो वह है ‘पुल’। सड़क बीच बड़ी-मझौली नदियों पर पुल तो छोटे नालों पर पुलिया बनाई जाती है। सड़क विकास का प्रतीक है तो पुल साक्षात विकास। ग्राम की सड़क की छोटी-छोटी पुलियाएं वृद्धि की सूचक।
पुल आजकल से नहीं बनने लगे, पुल तो तब भी बनते थे जब देश आजाद नहीं हुआ था लेकिन तब पुल लोगों को सड़क पर लाने और राह की बाधाएं दूर कर सड़क को मंजिल तक पहुंचाने का कार्य करते थे। तब के पुल प्राकृतिक हुआ करते थे। पुराने पुल लाठी, पत्थर, रस्सी से बने होते लेकिन मजबूत होते थे क्योंकि वे अंदर और बाहर से वजनदार थे, ठेकेदार नहीं। उसके समानांतर हूबहू नया पुल बन जाए तो भी नया नौ दिन पुराना सौ दिन।
इन दिनों जिधर देखो उधर सड़क दिखाई दे रही। नीचे से ऊपर तक काली मगर चमचमाती हुई। धूल को शिरोधार्य करने वाली राहें तो आज भी मटमैली हैं जो कालिख से न डरी वह चमक गई। जब सड़क होगी तो पुल, पुलिया तो होंगे ही। चुनाव पूर्व पुलों का भूमि-पूजन होता है, चुनाव बाद कार्यारंभ और चुनाव पूर्व लोकार्पण। कोई बड़ा पुल यों ही नहीं बन जाता। अकड़ कर खड़े हर पुल के अंदर अमीरों के प्लाज्मा का लोहा, रेत, गिट्टी, सीमेंट भरा होता है जो गरीबों के खून की तरी से सेट होता है।
कोई लाख दावा करे कि हमारे पुल दूसरों के बनाए पुलों सरीखे नहीं, ये अंदर से सॉलिड हैं लेकिन कोई भी पुल अंदर से सॉलिड हो ही नहीं सकता, कहीं न कहीं से खोखला होना उसकी नियति है। पुल बना ही इसलिए कि उसके दोनों हाथों में सड़क हो। पैरों में पानी और पेट में हवा। सड़क जो गांव से शहर आती हो या शहर से गांव जाती हो। हर हाल में उससे होकर गुजरे। हर राजमार्ग पुल-पुलियाओं के बिना अधूरा है।
सत्ता के साए में हर पुल मजबूती से खड़ा दिखाई देता है। हमरे भैया भए कोतवाल टाइप। मीडिया लाख टांग खींचे, उसका फोटू उतारे मगर न तो उसका चेहरा उतरता और न वह। ‘जिसे राम रखें, उसे कौन चखें!’ पुल तभी गिरता है जब उसका खोखलापन कुछ ज्यादा ही बढ़ जाए, विरोध की हवाएं उसके पाएं उखाड़ दें या फिर बरसों से अटका गरीबों के खून का ‘लौंदा’ आ जाए। पुल अपनी कमजोरियों से ऐसे भी गिरकर बिखर रहे हैं।