राजेश रामचंद्रन
चाहे यह चुनाव पूर्व व्यग्रता है या पूर्व नियोजित रणनीति, बीते मंगलवार को अचानक हरियाणा भाजपा प्रदेशाध्यक्ष नायब सैनी को मुख्यमंत्री बनाना, इसमें बिगड़ी स्थिति को संवारने की कोशिशों के तमाम चिन्ह साफ तौर पर दिखाई देते हैं। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बरक्स भाजपा और आप विभिन्न राज्यों में लोगों का मिज़ाज भांपने को हफ्तावार सर्वे करवाती रहती हैं। ये अध्ययन उन्हें उम्मीदवारों के चयन, शिकायतें दूर करने व उनके प्रदर्शन पर निगाह रखने में सहायक होते हैं।
सर्वे आधारित यह समस्या-निवारण व्यवस्था एक प्रभावकारी निर्णय-निर्माण प्रक्रिया बनाती है। मनोहर लाल खट्टर का इस्तीफा और सैनी को पदोन्नति चुनाव-पूर्व बनी धारणा का प्रबंधन करने का नवीनतम उदाहरण है। ऐसे वक्त पर, जब चुनाव ऐन सिर पर हो, यह उपाय नौ साल और चार महीनों के राजकाज के बाद– जो किसी मुख्यमंत्री के लिए लंबा कार्यकाल है- पैदा हुई एंटी-इंकम्बेंसी का निदान करने के वास्ते किया गया है। लेकिन ठीक इसी वक्त यह बदलाव केवल इसी को करने भर की गर्ज से नहीं है। सैनी स्वयं मनोहर लाल खट्टर के चेले हैं और शपथ ग्रहण के बाद गुरु के पांव छूकर उन्होंने अपनी अगाध वफादारी दर्शाई भी है। यह एंटी-इंकम्बेंसी को स्वीकार करने के निशानों को मिटाने जैसा है।
ज्यादा अहम यह कि कुरुक्षेत्र से 54 वर्षीय सांसद नायब सैनी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे पार्टी द्वारा सूबे पर अपनी राजनीतिक पकड़ कायम रखने के वास्ते सोशल इंजीनियरिंग साधने की आवश्यकता को स्वीकार करना है। जाहिर है, लोगों में सत्ताधारियों के खिलाफ हुए रोष या उदासीनता के चलते भाजपा इस बार हरियाणा में दस की दस लोकसभा सीटें जीतने से रही। लेकिन कर्नाटक के बरक्स, जहां भाजपा पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे, खट्टर सरकार पर इस किस्म के दूषण नहीं रहे। इसलिए नया, स्वच्छ, गैर-जाट चेहरा वह भी अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित, पेशकर करके भाजपा ने पार्टी की छवि सुधारने का प्रयास किया है। भाजपा ने बागडोर नए व्यक्ति को थमाकर महज एंटी-इंकम्बेंसी का तोड़ ही नहीं ढूंढा, बल्कि नया चेहरा पेश करके सोशल इंजीनियरिंग पर एक साथ निशाना साधा है।
हरियाणा की राजनीति सदैव जाट और गैर-जाट दबदबे के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लगभग एक दशक तक हरियाणा में सरकार चलाने वाले खट्टर गैर-जाट राजनीतिक नेतृत्व की तगड़ी दावेदारी का प्रतीक बने। हालांकि एक सैनी को मुख्यमंत्री बनाना इससे एक कदम आगे है, क्योंकि वे न केवल गैर-जाट हैं बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग से भी और उनके पूर्ववर्ती पंजाबी की सूबे की राजनीति पर सम्मानजनक पकड़ अभी भी कायम है। भाजपा नेतृत्व ने सैनी का चयन करते वक्त मनोहर लाल काबीना में नंबर दो रहे, गृह मंत्री अनिल विज की दावेदारी को नज़रअंदाज़ ही किया है। साफ संकेत है कि मोदी की बिसात में खट्टर का रुतबा क्या है। अब, जहां तक इसका राजनीतिक संदेश जाता है, भाजपा ने राहुल गांधी की जाति-गत राजनीति के प्रति नए उमड़े नव-प्रेम की काट के तौर पर अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित एक अन्य प्रतीक बना दिया है।
हरियाणा से बृहद संदेश यह नहीं है कि संघ परिवार ओबीसी श्रेणी का एक अन्य मुख्यमंत्री देकर अपनी पिछड़ा वर्ग हितैषी छवि को चमकाना चाहता है लेकिन तथ्य यह है कि पार्टी किसी भी संभावना को हल्के में नहीं लेना चाहती। 370 सीटें जीतने की तमाम बातें महज एक खोखला जुमला है। हकीकत में, चुनाव अभियान के प्रत्येक मोड़ पर भाजपा अपनी रणनीति में तात्कालिक उपाय करने में लगी है। इसकी अपनी और व्यापक तौर पर बनी धारणा कि भाजपा केवल मोदी के करिश्मे पर चुनाव लड़ रही है, हकीकत नहीं है। हरियाणा में आखिरी क्षण पर मुख्यमंत्री बदलना एक बार फिर सिद्ध करता है कि भारतीय चुनाव व्यवस्था में, एकल व्यक्तित्व आधारित राष्ट्रपति-चुनाव प्रणाली कभी नहीं हो सकेगी। सभी 543 पर न सही, तथापि कम से कम कुछ सौ स्थानों पर, यह चुनाव संलग्न विषयक है- हरेक स्थानीय मुद्दों पर अलग लड़ा जाने वाला।
इस तथ्य का सबसे बेहतरीन उदाहरण 1977 का चुनाव है, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अघोषित रूप से सर्व-शक्तिमान एवं समांतर शक्ति-केंद्र बना उनका बेटा चुनाव हार गए थे। तब उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। हालांकि आंध्र प्रदेश में 42 में 41, कर्नाटक में 28 में 26 सांसद, तो केरल में सहयोगी दलों के साथ 20 की 20 सीटें जीती थीं। उत्तर-दक्षिण के बीच यह परिणाम अंतर सदा से रहा है, बल्कि, एक राज्य और दूसरे के मध्य बिल्कुल अलग। आम चुनाव में लड़ाई मुख्यतः सूबों में होती है और आगे चुनावी-क्षेत्रवार, मान्यता के विपरीत सत्तासीन प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देशव्यापी चुनाव प्रचार कभी भी ऐसा नहीं रहा कि इसकी धमक में शेष सब पार्श्व में जाएं। यह सोचना कि अमेठी और रायबरेली के मतदाताओं के पास बेंगलुरू या मैसूर के वोटरों से बेहतर लोकतांत्रिक समझ है, बेहतर जानकारी विकल्प या अधिक राजनीतिक अक्ल है, न तो यह 1997 में थी, न ही 2024 में होगी।
अबकी बार 400 पार (कम से कम 370 भाजपा की और 30 सहयोगियों को) के दमगज़े के बावजूद, भाजपा के रणनीतिकारों को राष्ट्रीय लोकदल को साथ जोड़ना पड़ा। पश्चिमी उ.प्र. के जाट बहुल चुनावक्षेत्र में दो सीटें छोड़ी हैं। ऐसे ही बिहार में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति दल के लिए पांच सीटें महज इसलिए छोड़नी पड़ीं क्योंकि भगवा दल ने एक-देश-एक-रणनीति न अपनाकर राज्य-वार स्थानीय स्तर के जरूरतों के मुताबिक रणनीति बनाना तय किया है। ‘मोदी की गांरटी’ नामक नारा तो महज केक की उपरी सजावटी परत सरीखा है, मूल सामग्री तो स्थानीय क्षत्रप, आकांक्षाएं, जातीय-सशक्तीकरण और सत्तासीन सूबा सरकार के प्रति उत्पन्न हुए गुस्से के अवयवों से बनी है। जाहिर है केवल राष्ट्रीय स्तर के नेता की छवि का मुलम्मा चढ़ाकर स्थानीय जनता के क्रोध को शांत नहीं किया जा सकता।
स्थानीय मतदाता के लिए अधिक अहम स्थानीय विषय होते हैं, मसलन, कर्नाटक के मतदाता के लिए इलैक्ट्रॉल बॉन्ड के खरीदार कौन हैं और जांच एजेंसियों द्वारा बनाये दबाव के बाद हुई खरीदारी से ज्यादा रुचि पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दीयुरप्पा पर पोक्सो एक्ट के तहत दर्ज हुए आपराधिक मामले में होगी। जो सूबे में मतदाता के मिजाज़ को प्रभावित करेगा। ऐसे मौके भी रहे जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की छवियां परस्पर नुकसानदायक सिद्ध हुईं, जैसा कि 1977 के वक्त हुआ। लेकिन क्रोध-रहित एवं निर्लिप्त मतदाता वाले राजनीतिक माहौल में मुख्यतः यह केंद्र या राज्य सरकार की छवि होती है, जो पलड़े को अपने पक्ष में झुकाने का काम करती है। भाजपा की सोच है कि राज्यों में सूबा सरकारों के प्रति पनपे लोगों के गुस्से को शांत किया जाए। साथ ही केंद्र के कामों का ढिंढोरा पीटता सकारात्मक चुनाव अभियान चलाया जाए।
जहां लगभग हरेक चुनाव क्षेत्र में इस किस्म का जुगाड़ किया जा रहा है वहीं भाजपा अपने गढ़ वाले सूबों में भी सहयोगी दलों के साथ सीट-बंटवारा समझौते कर रही है। दूसरी तरफ, कांग्रेस की निर्भरता केवल राहुल गांधी की छवि-निर्माण यात्राओं पर है जबकि इसके पास चुनावी सर्वे बांचने, प्रत्याशी चयन और स्थानीय चुनाव अभियान चलाने का समय नहीं बचा। खट्टर को हटाने के प्रसंग का मिलान पड़ोस के पंजाब में 2021 में कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने से किया जाए, तो वहां अमरिंदर को बेइज्जत करते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को बैठाया और फिर नवजोत सिंह सिद्धू को चन्नी एवं कांग्रेस सरकार की सरेआम आलोचनाएं करने को खुला छोड़ दिया। बरतने में यही अंतर परिणामों की रूपरेखा तय करता है।
लेखक प्रधान संपादक हैं।