विश्वनाथ सचदेव
मानवीय संवेदनाओं को साकार करने वाले बाबा आम्टे ने आज से लगभग पैंतीस साल पहले एक नारा दिया था देश को-भारत जोड़ो। नौ अगस्त, 1942 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा देश को दिये गये एक संकल्प ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ की तर्ज पर दिया गया यह नारा वस्तुत: राष्ट्रपिता के आह्वान की अगली कड़ी ही था। बापू ने आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक कदम को साकार किया था और उसके लगभग पांच दशक बाद बाबा आम्टे ने आज़ादी के उद्देश्य को पूरा करने की राह दिखायी थी। बाबा आम्टे ने ‘भारत जोड़ो’ के लिए आह्वान करते हुए कहा था, ‘बिना रचनात्मक काम के राजनीति बांझ है और बिना राजनीति के रचनात्मक काम नपुंसक।’ इस रचनात्मक काम से उनका तात्पर्य आसेतु-हिमालय भारत को सही अर्थों में एक राष्ट्र बनाना था। एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग की दीवारों के लिए कोई जगह नहीं होगी। यह सब होंगे तो सही, पर देश को तोड़ने के लिए नहीं, जोड़ने के लिए। बाबा आम्टे ने ‘भारत जोड़ो’ के उस अभियान को प्रारम्भ करते हुए इस देश के हर नागरिक को भारतीय होने का मंत्र दिया था। वे स्वयं को ‘चेतना का सिपाही’ कहते थे। हर भारतीय की चेतना को जागृत-झंकृत करने का सपना दिखाया था उन्होंने। ‘हम भारतीय हैं’ से भी आगे बढ़कर ‘हम मनुष्य हैं’ की चेतना जगाने, उसे विकसित करने की राह दिखाई थी उन्होंने।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई ही है कि आज जब देश आज़ादी के पिचहत्तरवें साल में प्रवेश कर रहा है, हमारी भारतीयता और मनुष्यता, दोनों, सवालिया निशानों के घेरे में है। धर्म व्यक्ति को मनुष्य बनाता है, पर हमने धर्म को राजनीति का हथियार बना लिया है। जाति मनुष्य के कर्म की पहचान होनी चाहिए, पर हम जाति के नाम पर राजनीतिक पहचान को मज़बूत बनाने में लगे हैं। भाषा एक व्यक्ति को दूसरे से जोड़ने का माध्यम होती है, हम आज भाषा के नाम पर एक-दूसरे से अलग होने का काम कर रहे हैं। बड़ी त्रासदी यह है कि यह सब अनज़ाने में नहीं हो रहा, हम जानबूझकर यह कर रहे हैं। सोच-समझ कर, रणनीतियां बना कर राजनीति की शतरंज पर शह-मात का खेल खेला जा रहा है और इस प्रक्रिया में हम लगातार कमज़ोर हो रहे हैं। त्रासदी यह भी है कि हम इसके परिणामों की भयावहता को समझना भी नहीं चाहते।
इन परिस्थितियों में फिर एक बार देश में ‘भारत जोड़ो’ की बात कही जा रही है। इस बार यह बात प्रधानमंत्री ने कही है। ‘मन की बात’ के अपने मासिक-कार्यक्रम में उन्होंने देश का आह्वान किया है कि वह आज़ादी के अमृत-महोत्सव वाले वर्ष में एक-दूसरे से जुड़ने का संकल्प है। यह बात सुन कर अच्छा लगा। जिस रचनात्मक काम की बात बाबा आम्टे ने की थी, वह भारतीयता का अहसास जगाने का काम था, मनुष्यता को सही अर्थों में समझने का काम था।
महात्मा गांधी ने जब ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया तो सारा देश जैसे जाग उठा था। यह सपना देखने का नहीं, सपने को पूरा करने का आह्वान था। और हमारा सपना पूरा हुआ। 15 अगस्त, 1947 को हमने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। इस तरह की सफलता तभी मिलती है जब आह्वान में नैतिकता की आंच हो, आह्वान को सफल बनाने के लिए ईमानदार कोशिश हो। क्या आज, जब हम देश को जोड़ने की बात कर रहे हैं, क्या वह आंच और वह ईमानदारी हमारे में है? वर्ष 1947 में हमने जिस नियति से साक्षात्कार किया था, वह यही नियति थी जो आज 75 साल बाद हम देख रहे हैं?
प्रगति तो बहुत की है हमने इस दौरान, पर सवाल उस सपने को पूरा करने का है जो हमने अपने लिए देखा था। वह सपना एक ऐसे भारत का सपना था जो स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता की मज़बूत बुनियाद पर खड़ा हो। क्या हम उस बुनियाद को कमज़ोर बनाने में नहीं लगे हुए?
हम हिंदू या मुसलमान या सिख या पारसी तो तब भी थे, जब हम ‘भारत छोड़ो’ के नारे को साकार करने में लगे थे। पर तब हम पहले भारतीय थे, फिर कुछ और। आज हमारा नेतृत्व इस ‘फिर कुछ और’ को प्राथमिकता देने की ओर धकेल रहा है। राजनीतिक दल जोड़ने की बात तो करते हैं, पर समाज को बांटने-तोड़ने में ही उनके स्वार्थ सधते हैं। आज हमारी राजनीति के कर्णधार समाज को धर्मों और जातियों में बांटने में विश्वास करने लगे हैं। राजनीतिक रणनीति का आधार ‘सोशल इंजीनियरिंग’ बन गयी है, जिसका मतलब है धर्म और जाति के आधार पर मतदाताओं को देखना-समझना। उम्मीदवारों के चयन से पहले देखा यह जाता है कि वह किस धर्म का है, क्षेत्र में उसे जाति के आधार पर कितने वोट मिल सकते हैं। धर्म और जाति के नाम पर खुले आम वोट मांगते हैं हमारे नेता। इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि देश का प्रधानमंत्री वेशभूषा के आधार पर लोगों को पहचानने की बात करते हैं, देश का गृहमंत्री धर्म-विशेष का नारा लगा कर अपनी चुनावी सभा की शुरुआत करता है। दुर्भाग्य यह भी है कि कोई भी दल धर्म के नाम पर राजनीति करने में संकोच नहीं करता। जीवन में आस्था का अपना महत्व है, पर जब राजनीतिक नफे-नुकसान की गणना करके आस्था का प्रदर्शन किया जाये तो नीयत में संदेह होना स्वाभाविक है।
सवाल नीयत का है। हमारे राजनेता जो कहते हैं, वह करते नहीं, और जो करते हैं उसे स्वीकारते नहीं। ऐसे राजनेता हर राजनीतिक दल में है। हर दल दूसरे पर उंगली उठा रहा है, पर यह याद रखना ज़रूरी नहीं समझता कि उसकी अपनी दो उंगलियां स्वयं उसकी ओर इशारा कर रही हैं। वह यह भी याद रखना ज़रूरी नहीं समझता कि कल उसने क्या कहा था। स्थान और स्थितियों को देखकर अपना चोला बदलने वाली राजनीति देश और समाज को तोड़ ही सकती है, जोड़ नहीं सकती।
आज देश को जोड़ने वाली सोच, जोड़ने वाली राजनीति चाहिए। पर हमारे राजनेता, जोड़ने वाली बात तो करते हैं, पर राजनीति तोड़ने वाली ही कर रहे हैं। कब्रिस्तान और श्मशान का नाम लेकर होने वाली राजनीति, जनगणना में धार्मिक संतुलन की बात करने वाले नेता और जाति के आधार पर वोट बांटने का गणित लगाने वाले चुनावी-रणनीतिकार देश को जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं। सच तो यह है कि देश नारों से या मंत्रों से नहीं जुड़ता, देश के जोड़ने के लिए भारतीयता की पहचान को स्वीकारना होगा। समझना और कहना होगा कि मैं पहले भारतीय हूं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।