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भारत की अनमोल धरोहर की नीलामी

पिपरहवा की खुदाई से मिले रत्न ईसा से कम से कम दो से ढाई सौ साल पुराने होने के कारण भारत से मिली प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहरों में गिने जाते हैं। भगवान बुद्ध के अस्थि कलशों में रखे होने के कारण...
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पिपरहवा की खुदाई से मिले रत्न ईसा से कम से कम दो से ढाई सौ साल पुराने होने के कारण भारत से मिली प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहरों में गिने जाते हैं। भगवान बुद्ध के अस्थि कलशों में रखे होने के कारण उनका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व उन्हें अनमोल बनाता है। ऐसे में इनकी नीलामी हर हाल में रोकी जानी चाहिए।

शिवकान्त शर्मा

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हांगकांग में होने वाली भगवान बुद्ध के अनमोल श्रद्धा रत्नों की नीलामी ने एक बार फिर इस बात पर बहस छेड़ दी है कि क्या विश्व की अनमोल सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर को नीलाम होने देना सही है? गत सप्ताह जिन 371 रत्नों और स्वर्ण एवं रजत पत्रकों की नीलामी होने वाली थी वे आज से लगभग सवा सौ साल पहले 1898 में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर ज़िले के पिपरहवा गांव में एक बौद्ध स्तूप की खुदाई में मिले थे। पिपरहवा नेपाल की सीमा पर स्थित है और माना जाता है कि शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु यहीं पर थी। खुदाई इस इलाक़े के ब्रितानी ज़मींदार विलियम क्रैक्सटन पेपे ने कराई थी जो पेशे से इंजीनियर थे। खुदाई में 130 फुट व्यास वाले ईंटों से बने स्तूप के भीतर पत्थर का एक संदूक मिला था जिसमें पांच पाषाण कलश थे। इनमें भगवान बुद्ध की अस्थियों और भस्म के साथ 1800 से अधिक मोती, माणिक, पुखराज और नीलम जैसे रत्न और सोने व चांदी के पत्रक रखे थे जिन पर बौद्ध आकृतियां बनी हुई थीं। इनमें से एक कलश पर ब्राह्मी लिपि में प्राचीन पाली में लिखा था कि ‘इस स्मारक स्तूप में भगवान बुद्ध की वे अस्थियां विराजमान हैं जो उनके शाक्यवंशी स्वजनों को मिली थीं।’

कुशीनगर में भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियां शाक्यवंशियों ने चारों दिशाओं से आए आठ गणराज्यों के प्रतिनिधियों में बांट दी थीं ताकि वे अपने-अपने यहां स्तूप बनाकर उनकी स्थापना कर सकें और अधिक से अधिक लोग उनका दर्शन करने जा सकें। इस प्रकार अस्थियां आठ गणराज्यों के स्तूपों में रखी गई थीं। माना जाता है कि पिपरहवा का स्तूप उन्हीं में से एक है जिसे एक ब्राह्मण ने महात्मा बुद्ध के शाक्यवंशियों के लिए बनवाया था। इसलिए इसे पुरातत्व की सबसे बड़ी खोजों में गिना गया। स्तूपों में बुद्ध की अस्थियों के साथ बहुमूल्य रत्न, सोने और चांदी के पत्रकों और मुद्राओं को रखने की परंपरा भी थी जिसके लिए लोग दिल खोलकर दान देते थे। विलियम पेपे ने अपने रिकॉर्ड में लिखा है कि खोज के पुरातात्विक और धार्मिक महत्व को समझते ही उन्होंने यह धरोहर ब्रितानी सरकार के हवाले कर दी थी। सरकार ने रत्नों और अस्थियों को अलग करते हुए रत्नों का छठा हिस्सा पेपे को दे दिया। बाकी बचे रत्नों और अस्थियों में से कुछ हिस्सा बौद्ध देश थाइलैंड के राजा चूडालंकरण द्वारा भेजे गए भिक्षुदूत को दिया और बाकी कोलकाता और कोलंबो के संग्रहालयों में भेज दिया था। हांगकांग में जिन रत्नों और सोने-चांदी के पत्रकों की नीलामी की कोशिश हो रही है वे वही हैं जो ब्रितानी सरकार ने विलियम पेपे को दिए थे।

नीलामी करने वाली कंपनी सोदबीज़ ब्रितानी मूल की बहुराष्ट्रीय कंपनी है जो सांस्कृतिक महत्व की धरोहरों की नीलामी करने के कारण अक्सर विवादों में रहती है। छह साल पहले न्यूज़ीलैंड के माओरी आदिवासियों की काष्ठ कलाकृति की लगभग छह करोड़ रुपये में हुई नीलामी को लेकर विवाद हुआ था और सरकार से कलाकृति वापस लाने की मांगें की गई थीं। भगवान बुद्ध के श्रद्धा रत्नों की नीलामी तो और भी विवादास्पद है। रत्नों की नीलामी विलयम पेपे के परपोते क्रिस पेपे कराना चाहते हैं जो फ़िल्म निर्माता हैं और हॉलीवुड में काम करते हैं। उनका कहना है कि ये रत्न भगवान बुद्ध की अस्थियों या अवशेषों का हिस्सा नहीं हैं। इन्हें लोगों ने श्रद्धा स्वरूप अस्थियों के साथ रखा था। इनका कोई धार्मिक या सांस्कृतिक महत्व नहीं है। उन्होंने कई बौद्ध भिक्षुओं, मठों और विद्वानों से पूछने के बाद ही इन्हें नीलाम करने का फ़ैसला किया है ताकि ये किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था के पास चले जाएं जो इनकी सही देखभाल और सार्वजनिक प्रदर्शनी कर सके। उनका कहना है कि उनके परदादा को वही रत्न और पत्रक दिए गए थे जो संग्रह में एक से अधिक संख्या में मौजूद थे। इसलिए जिन्हें नीलाम किया जा रहा है उनके जैसे दूसरे रत्न और पत्रक कोलकाता, बैंकाक और कोलंबो के संग्रहालयों में मौजूद हैं। उनका यह भी कहना है कि उन्होंने इन्हें दान करने के लिए कई बौद्ध मठों और बौद्ध देशों के संग्रहालयों से संपर्क किया था पर कहीं से संतोषजनक उत्तर नहीं मिला।

लेकिन दुनियाभर के बहुत से बौद्ध मतावलंबी क्रिस पेपे के स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं हैं। न ही वे नीलामी करने वाली कंपनी सोदबीज़ के इस दावे से संतुष्ट हैं कि उन्होंने इस नीलामी के सारे नैतिक और कानूनी पक्षों को नाप-तोल कर ही नीलामी करने का फ़ैसला किया था। लंदन के प्राच्यविद्या एवं अफ़्रीकी अध्ययन संस्थान (सोआस) में दक्षिण एशियाई कला के विशेषज्ञ प्रो. एशली टॉम्सन और संग्रहपाल कोनान चोंग का कहना है कि बौद्ध धर्मावलंबियों के अनुसार भगवान बुद्ध के अस्थिकलशों में अस्थियों और भस्म के साथ डाले गए श्रद्धा रत्नों को अलग कैसे माना जा सकता है? वे अस्थियों के स्पर्श मात्र से उनका अभिन्न भाग बन चुके हैं। उनका वही महत्व और स्थान होगा जो उनकी अस्थियों का है। ब्रितानी महाबोधि समिति के विद्वान अमल अभयवर्धने का कहना है कि भगवान बुद्ध का उपदेश है कि दूसरों की संपत्ति उनकी अनुमति के बिना नहीं लेनी चाहिए। शाक्यवंशियों को यह धरोहर इसलिए सौंपी गई थी कि वे स्मारक बनाकर उन्हें श्रद्धालुओं के दर्शन और पूजा के लिए सुलभ बना सकें। उन्होंने स्तूप बनाकर वही किया। औपनिवेशिक शासकों का पिपरहवा की खुदाई से मिली शाक्यवंशियों की सांस्कृतिक धऱोहर पर मालिकाना हक कैसे हो गया? विवाद से चिंतित होकर भारत सरकार को कानूनी कार्रवाई की धमकी देनी पड़ी है जिसके बाद सोदबीज़ ने नीलामी को स्थगित कर दिया है ताकि सभी पक्षों के बीच बातचीत से कोई समाधान निकाला जा सके।

पिपरहवा की खुदाई से मिले रत्न ईसा से कम से कम दो से ढाई सौ साल पुराने होने के कारण भारत से मिली प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहरों में गिने जाते हैं। भगवान बुद्ध के अस्थि कलशों में रखे होने के कारण उनका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व उन्हें अनमोल बनाता है। बुद्ध, रामायण और गांधी भारत के सबसे बड़े वैचारिक और सांस्कृतिक निर्यात हैं। इनके विश्वव्यापी प्रभाव के सामने तूतनखामून के स्मारक से मिले पुरावशेष, एथेंस के मंदिर से मिली संगमरमर की शिल्पकृतियां और नाइजीरिया के बेनिन शहर से मिली कांस्य प्रतिमाएं कहीं नहीं ठहरतीं जिनके प्रत्यर्पण को लेकर दशकों से विवाद चल रहा है। सोदबीज़ को उम्मीद है कि बुद्ध के श्रद्धा रत्नों की बोली 100 करोड़ रुपये तक जा सकती है। लेकिन भगवान बुद्ध जैसे महापुरुष की अस्थियों से जुड़े रत्नों की नीलामी होना ही नैतिक आधार पर सही नहीं प्रतीत होता। क्या आप इतालवी शहर ट्यूरिन के गिरजे में रखे ईसा के कफ़न की नीलामी की कल्पना कर सकते हैं? ईसा और उनके परिवार से सीधे जुड़े अवशेषों की नीलामी नहीं की जा सकती। इसी तरह अच्छा होता कि यूनेस्को पिपरहवा के स्तूप और उसकी खुदाई से मिली पुरातात्विक सामग्री को विश्व धरोहर घोषित कर देता और इस नीलामी पर रोक लग जाती। या फिर दलाई लामा ही इसे रुकवाने और रत्नों को लौटाकर पिपरहवा में लोगों के दर्शन और पूजन के लिए रखवाने का प्रबंध करते। भारत सरकार ने 2009 में महात्मा गांधी के चश्मे, घड़ी और चप्पलों की नीलामी को रुकवाने की कोशिश की थी। अंत में विजय माल्या ने बोली लगाकर उन्हें भारत लौटाने में मदद की थी। सुना है अब भारत सरकार भगवान बुद्ध की इस अनमोल धरोहर के प्रत्यर्पण का प्रयास कर रही है जो सराहनीय कदम है।

लेखक लंदन में पत्रकारिता, संस्कृतिकर्म व अध्यापन में सक्रिय हैं।

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