देविंदर शर्मा
ऐसे समय में जब दुनियाभर में किसानों को अपनी लागत तक निकालने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है,ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि पिछले दो सालों में खाद्य उद्योग से संबंध रखने वाले 62 नए अरबपति इस अति विशिष्ट वर्ग में शामिल हो गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार इसमें 12 अरबपति केवल कारगिल परिवार से ही हैं, जिनकी संख्या कोविड महामारी से पहले 8 थी।
वस्तुओं की बढ़ी कीमतें, मुद्रास्फीति, रिकॉर्ड भूमि मूल्य और नये तकनीकी आविष्कार की लहर पर सवार होकर, जो कि उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर है, खाद्य उद्योग का मुनाफा दिन दोगुणा-रात चौगुणा बढ़ता जा रहा है। ऑक्सफैम (ग्रेट ब्रिटेन) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डैनी श्रीकंदराजा कहते हैं ः ‘ऐसे वक्त में जब लाखों-करोड़ों लोगों के सामने अत्यंत गरीबी मुंह बाए खड़ी है तब सरकारों के पास इतने बड़े स्तर की मुनाफाखोरी और धनलोलुपता को नकेल डालने का कोई बहाना नहीं बचता ताकि कोई पीछे न छूटने पाए’। आखिर क्यों खाद्य शृंखला के अंतिम छोर पर मालिकान का उत्तरोतर बढ़ते मुनाफे का हिस्सा पहली कड़ी यानि फसल उत्पादक किसान तक नहीं पहुंचता। आज अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार के 70 प्रतिशत हिस्से पर कारगिल समेत दुनिया की चार सबसे बड़ी खाद्य-कंपनियों का नियंत्रण है। दुनिया में जिन कृषि वस्तुओं का व्यापार होता है, उसे खेतों में खून-पसीने से किसान उगाता है और उसकी अपनी जिंदगी अच्छी नहीं है।
यही बात तकनीक-समृद्ध कंपनियों पर भी लागू होती है, जो कृषि-संत्रासों को दूर करने के लिए तकनीक आधारित उपाय अपनाने को बढ़ावा देकर फल रही हैं। जहां कृषक के लिए कमाई करनी दुरूह है वहीं कृषि-तकनीक कंपनियां चांदी कूट रही हैं। हैरत है कि तमाम नई तकनीकी खोजों के बावजूद वैश्विक ग्रीन हाउस गैस के एक तिहाई उत्सर्जन के लिए औद्योगिक कृषि को जिम्मेवार माना जाता है। इससे आगे, सस्ता भोजन पैदा करने की असल कीमत का श्रेय आसानी से बाहरी अवयवों को दिया जाता है। जहां यह ‘बाहरी अवयवों’ के आपूर्तिकर्ता अपना मुनाफा बनाकर चलते बनते हैं वहीं इससे पैदा आर्थिक एवं पर्यावरणीय नुकसानों का खमियाजा समाज को भरना पड़ता है। यह चक्र निरंतर चला आ रहा है। अब देखना यह कि कैसे आर्टिफिशएल इंटेलीजेंस पुनः संतुलन बना पाएगी।
यही सवाल पेरिस स्थित निजी निवेशक रूफो क्वींटावाल्ले का है, जब उन्होंने स्टैनफोर्ड सोशल इनोवेशन रिव्यू के 12 मार्च 2014 अंक के लिए लिखे विचारोत्तेजक लेख ‘अन्न सिलिकॉन वैली में नहीं पैदा होता’ में उठाते हुए कहा ः ‘पिछले 100 सालों में कृषि व्यवस्था में जितनी नई खोजें हुई हैं उतनी इससे पहले के मानव इतिहास के किसी काल में कभी नहीं हो सकीं। इन नई खोजों का साझा जोर फसल का मूल्य नीचे लाना, किसान को दरिद्र बनाना और पर्यावरण का नुकसान करने पर रहा’।
वास्तव में, तमाम तकनीकी खोज़ों का उद्देश्य कार्यकुशला बढ़ाना और उच्चतर उत्पादन हासिल करना है। होना तो यह चाहिए था कि नई खोज़ों से किसान की आय बढ़ती। लेकिन तथ्य है कि जैसे-जैसे किसान ज्यादा फसल पैदा करता गया वैसे-वैसे उनकी असल आमदनी घटती चली गई। उदाहरणार्थ, उत्तर अमेरिका में, पिछले 150 सालों के दौरान, फसल का उच्चतर उत्पादन हासिल करने के बावजूद, मुद्रा-स्फीति का असर जोड़ लेने के बाद देखें तो उनकी आय असल में घटी है। मसलन, कनाडा में गेहूं का जो वर्तमान मूल्य किसान पा रहा है, उसका छह गुणा ज्यादा भाव परदादा पा रहा था!
यह मंजर मुझे भारत के अग्रणी कृषि-प्रधान राज्य पंजाब के हालातों में ला रहा है। सालाना रिकॉर्ड उत्पादकता पाने के बावजूद पंजाब पर्यावरणीय रूप से संकट में बदल चुका है। तकनीक ने उत्पादकता तो जरूर बढ़ाई लेकिन इसकी एवज में भूमिगत जल का अतिरेकपूर्ण दोहन होने से जमीन के नीचे नैसर्गिक जल स्रोत सूखने लगे हैं, जहरीले कैमिकल मिट्टी में रच चुके हैं, उर्वरता का लगातार ह्रास हो रहा है। पराली जलाने से सांस घुटने लगती है। भारत के इस ‘अन्न के कटोरे’ को खेती को स्वस्थ और टिकाऊ कृषि व्यवस्था में बदलने के लिए बिलखता छोड़ दिया गया है।
पंजाब का मामला हमें यह समझने का मौका देता है कि कैसे तकनीक की राजनीति काम करती है। भूमिगत जल बचाने की आजकल जो बात चली हुई है, वह मुझे कुछ दशक पहले अध्ययन के सिलसिले में फिलीपींस के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईआरआरआई) की फेरी की याद दिलाता है। वहां मैंने एक अध्ययन सामग्री में पाया कि धान को बीज बोकर उगाएं या पनीरी प्रणाली से, फसल के उत्पादन में जरा भी फर्क नहीं पड़ता। यह जानते हुए भी कि धान को सीधे बीज डालकर उगाना पहले एशिया के अनेक हिस्सों में आम प्रचलन था, मैंने यह सवाल वहां के सबसे बड़े धान विशेषज्ञ से पूछा। जो उत्तर मुझे मिला वह कुछ इस तरह था ः ‘ऐसा (पनीरी प्रणाली) करके हम ट्रैक्टर उद्योग की मदद कर रहे थे। आखिरकार दुनिया का 97 फीसदी धान एशिया में उगता है । शायद बुवाई के तौर-तरीके में इस बदलाव का उद्देश्य ट्रैक्टर उद्योग के फलने-फूलने में मदद करना था’।
आईआरआरआई का एक अन्य अध्ययन बताता था कि इससे कीट नाशक के प्रभाव में कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसको खेत में लगने वाले पानी के स्रोत में मिलाकर भेजा जाए या फिर पीठ पर टंकी बांधकर नाना प्रकार की नोज़लों से छिड़का जाए। यह बात उससे एकदम उलट थी जो हमें बतौर विद्यार्थी सिखाई गयी थी। नीतियों, सब्सिडी और आसान कर्ज शर्तों की वजह से किसान को ज्यादा से ज्यादा मशीनें खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है। उदाहरणार्थ, पंजाब में कुल जरूरत से 5 गुणा ज्यादा ट्रैक्टर मौजूद हैं। एक बार तो पंजाब कृषि आयोग के एक पूर्व अध्यक्ष ने किसान को ट्रैक्टर के लिए आसान कर्ज न देने की बैंकों से अपील भी की थी। पराली जलाने पर नियंत्रण के नाम पर पहले ही 75000 मशीनें बिक चुकी हैं। 5-6 घटक मशीनों वाली यह मशीन प्रणाली सालभर में महज 3 हफ्ते के लिए प्रयोग में आती है। जैसे-जैसे नये तकनीकी उपकरण और मशीनें खरीदने को प्रेरित किया जाएगा वैसे-वैसे किसान कर्ज के जाल में और फंसता जाएगा और इन्हें बनाने वालों की जेब भारी होगी।
ऐसा बहुत कम होता है कि वह तकनीक जिसमें उपकरणों-मशीनों की जरूरत न पड़े,उसका जिक्र हो। बात तकनीक की मुखालफत की नहीं है किंतु सवाल है कि क्यों केवल ब्रांडेड तकनीक को ही बढ़ावा दिया जाए। एक साधारण किंतु प्रभावशाली तकनीक जैसा कि स्व. सुरिंदर दलाल ने कपास के कीड़ों के खात्मे को अपने इजाद किए निदान मॉडल से कर दिखाया था, हरियाणा में इसको अपनाने वाले कम हुए, केवल इसलिए कि इसमें किसी मशीन की जरूरत जो नहीं थी! धान की बुवाई के लिए धान सघनता प्रणाली वाला तरीका एक अन्य उदाहरण है, और सूची काफी लंबी है।
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि पंजाब मशीनों का कबाड़खाना न बनने पाए। मानसिकता बदलकर वह टिकाऊ तकनीक अपनाई जाए जिसमें बाहरी अवयवों और मशीनरी की जरूरत कम पड़े।
-लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं