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विकसित देशों की जवाबदेही सुनिश्चित हो

जलवायु संकट
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सुरेश सेठ

ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न असाधारण परिस्थितियां गंभीर चुनौती बन चुकी हैं, जिसके समाधान हेतु वैश्विक स्तर पर चर्चा की आवश्यकता है। इस संदर्भ में, दुनियाभर के देश बाकू में आयोजित कॉप-29 सम्मेलन में एकत्रित हुए, जहां इन समस्याओं से निपटने के उपायों पर विचार किया गया। हालांकि, सम्मेलन के पहले सप्ताह के बाद भारत ने यह स्पष्ट किया कि यह समस्या विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए भारी संकट बन गई है, और इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है।

समस्या स्पष्ट है कि औद्योगिक विकास और आधुनिकीकरण के कारण उत्पन्न प्रदूषण यानी कार्बन व हरित गैसों का उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग के चलते पर्यावरण में भयंकर परिवर्तन हो रहे हैं। यह समस्या केवल ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए गंभीर संकट बन चुकी है। हालांकि, कुछ वैश्विक उत्तर (विकसित देश) के देश यह मानते हैं कि पर्यावरणीय संकट की जिम्मेदारी सिर्फ विकासशील देशों पर है, और उन्हें ही इसका समाधान करना चाहिए। निस्संदेह, यह गलत सोच है। अब इस समस्या को गंभीरता से स्वीकार करने और समाधान की दिशा में प्रयासों की आवश्यकता है।

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भारत ने कार्बन और हरित गैसों के उत्सर्जन को निम्न स्तर पर लाने का संकल्प लिया है, लेकिन वित्तीय संसाधनों और तकनीकी मदद के अभाव में जलवायु परिवर्तन से निपटना बेहद कठिन हो रहा है। ग्लेशियरों का असमय पिघलना, बाढ़ और अनिश्चित मानसून के कारण कृषि संकट में पड़ गई है। कॉप-29 सम्मेलन से यह उम्मीद थी कि दुनिया के सभी प्रमुख देश मिलकर इस समस्या का समाधान ढूंढ़ेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सम्पन्न देशों के नेताओं ने सम्मेलन में भाग नहीं लिया, और न ही भारत सहित अन्य देशों ने मिलकर प्रभावी रणनीति बनाई। इसके बजाय, केवल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा।

बाकू में कॉप-29 शिखर सम्मेलन किसी महत्वपूर्ण सफलता के बिना समाप्त हो गया, जहां विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेद सामने आए। इस समय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता है, ताकि आर्थिक गतिविधियां सुचारु रहें और ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ न्यायसंगत कदम उठाए जा सकें। मांग हुई है कि संपन्न देशों को 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर अनुदान और रियायती वित्त सहायता के रूप में देना चाहिए, लेकिन वास्तविकता यह है कि अब तक जितना भी वित्त पोषण हुआ है, वह अधिकतर ऋण के रूप में विकासशील देशों को दिया गया है, जिससे उनकी राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता पर संकट उत्पन्न हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण विकासशील देशों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो रही है।

भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों ने मौसम के पैटर्न को अप्रत्याशित बना दिया है। किसानों के लिए मानसून अब अनिश्चित हो चुका है। इस स्थिति में कृषि की प्रगति नहीं, बल्कि उसका संकट बढ़ता जा रहा है। भारत और अन्य दक्षिणी देशों को जलवायु परिवर्तन के सबसे भयानक प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है।

संपन्न देश यह तर्क देते हैं कि कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग के मुख्य जिम्मेदार उभरते हुए विकासशील देश हैं, और इसलिए इन्हें ही इस संकट का सामना करना चाहिए। उनका कहना है कि उनका औद्योगिक विकास और प्रौद्योगिकी अब बदल चुकी है, और वे कृत्रिम मेधा और इंटरनेट का सर्वाधिक उपयोग कर रहे हैं, जिससे कार्बन उत्सर्जन कम हो गया है।

इस स्थिति में जलवायु परिवर्तन से निपटने की प्रक्रिया केवल भाषणों तक सीमित रह गई है, और असल कार्रवाई होती दिखाई नहीं देती। भारत ने विकसित देशों से निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि जब तक वे वित्तीय और प्रौद्योगिकी सहायता नहीं देते, तब तक यह प्रयास सार्थक नहीं हो पाएगा। भारत ने यह भी सवाल उठाया कि विकसित देशों के पास पर्याप्त संसाधन और क्षमता होने के बावजूद वे इस वैश्विक समस्या को गंभीरता से क्यों नहीं स्वीकारते।

भारत और अन्य विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के भयावह प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि इन देशों की अपनी क्षमताएं इस संकट से निपटने के लिए सीमित हैं। यह स्पष्ट है कि वैश्विक समस्याओं का समाधान विकसित और विकासशील देशों को मिलकर ही करना होगा, क्योंकि इस संकट का असर अंततः सभी देशों की आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा। भारत ने जी-77 देशों के सम्मेलन में भी संपन्न देशों से वित्तीय प्रतिबद्धताओं पर जवाबदेही की मांग की है। यह सवाल भी उठाया कि कार्बन उत्सर्जन के नियंत्रण की तिथियों को आगे बढ़ाने से क्या हासिल होगा, जब आर्थिक असंतुलन पहले ही सभी देशों के सामने आ चुका है।

लेखक साहित्यकार हैं।

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