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सदाधारा धारा नगरी

एकदा
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ाजा भोज मालवा के राजा थे और महाकवि कालिदास उनके राजकवि थे। एक दिन राजा भोज ने कवि कालिदास से कहा, ‘जब मैं यमराज का अतिथि बनूंगा, तो आप मेरी याद में कैसी कविता बनाएंगे?’ कालिदास खिन्न होकर अपनी पत्नी के साथ धारा नगरी छोड़कर शीला नगरी चले गए। राजा भोज कालिदास के बिना बहुत बेचैन थे। कुछ दिन बाद वे योगी के वेश में शीला नगरी पहुंचे। वहां राजा का सामना कालिदास से हो ही गया। कालिदास ने पूछा, ‘हे योगिराज! आप कहां रहते हैं?’ योगी ने कहा, ‘मैं धारा नगरी में रहता हूं।’ कवि ने पूछा, ‘धारा नगरी में राजा भोज सकुशल तो हैं?’ योगी का वेश धारण किए हुए राजा भोज ने जवाब दिया, ‘राजा का अचानक स्वर्गवास हो गया है।’ यह सुनते ही कालिदास ज़मीन पर गिर पड़े और बोले, ‘आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गई है। सरस्वती बिना आलंब की हो गई है और पंडित खंडित हो गए हैं।’ कालिदास की बहुत परेशान दशा देखकर राजा भोज ने तत्क्षण अपना रूप बदला और कहा, ‘कालिदास, मैं तो तुमसे परिहास कर रहा था।’ आंसू पोंछते हुए कालिदास बोले, ‘आज राजा भोज के होने पर धारा नगरी सदाधारा है। सरस्वती को सदा आलंब मिला हुआ है। सभी पंडित आदृत हैं।’ अनजाने में ही सही, कालिदास ने उनकी इच्छा पूरी कर ही दी।

प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा

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