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जहां देवताओं ने भी किया श्राद्ध

ब्रह्मकपाल
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श्राद्ध, तर्पण और मोक्ष—इन तीनों का संगम है बद्रीनाथ धाम के निकट स्थित ब्रह्मकपाल तीर्थ। यह वही स्थान है जहां स्वयं भगवान शिव ने ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए श्राद्ध किया था। आज भी लाखों श्रद्धालु अपने पितरों की मुक्ति हेतु यहां पिंडदान कर दिव्य शांति का अनुभव करते हैं।

डॉ. बृजेश सती

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इस भू-लोक में एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान शंकर ने अपने कृत्य की क्षमा के लिए स्वयं ब्रह्माजी का श्राद्ध किया। हालांकि, भगवान शिव सब के तारणहार हैं। उनके ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से मानव कल्याण हो जाता है। मगर स्वयं भगवान शिव भी एक बार श्रापित हो गए। इससे मुक्ति के लिए बदरी पुरी में स्थित ब्रह्म कपाल तीर्थ में श्राद्ध करना पड़ा। तब से यह स्थान पितरों की मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय स्थान है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में देश के अलग-अलग राज्यों से श्रद्धालु आकर अपने पितरों की मुक्ति के निमित्त पिंडदान और तर्पण करते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विगत कुछ वर्षों से विदेशी यात्री भी श्राद्ध कर रहे हैं।

ब्रह्मकपाल तीर्थ माहात्म्य

बदरीनाथ के पास स्थित ब्रह्मकपाल के बारे में मान्यता है कि यहां पर पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को नरक से मुक्ति मिल जाती है। स्कंद पुराण में ब्रह्मकपाल को गया से आठ गुणा अधिक फलदायी पित्र तीर्थ कहा गया है। मान्यता है कि देश में चार स्थानों गया, काशी, हरिद्वार और ब्रह्मकपाल में पितरों के निमित्त श्राद्ध कार्य किया जाता है। यदि कोई तीन तीर्थ में किन्ही कारणों से श्राद्ध नहीं कर पाए, तो वह बदरीनाथ स्थित ब्रह्म कपाल में अपने पितरों का उद्धार कर सकता है।

शिव को ब्रह्म हत्या का दोष

सृष्टि की उत्पत्ति के समय ब्रह्माजी, अपने द्वारा उत्पन्न कन्या पर मोहित हो गए थे। मान्यता है कि शिवजी ने गुस्से में आकर ब्रह्मा के पांचवें सिर को अपने त्रिशूल से काट दिया। इससे शिव पर ब्रह्म हत्या का पाप लग गया। ब्रह्मा का कटा हुआ सिर शिवजी के हाथ पर चिपक गया। ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए शिव ने पूरी पृथ्वी का भ्रमण किया, मगर उन्हें कहीं भी पाप से मुक्ति नहीं मिली।

भ्रमण करते करते शिवजी, बदरीनाथ पहुंचे। यहां ब्रह्मकपाल शिला पर शिव के हाथ से ब्रह्मा का सिर गिर गया। भगवान विष्णु की आज्ञा से उन्होंने यहां पर श्राद्ध किया और ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए। तब से यह स्थान ब्रह्मकपाल के नाम में प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मकपाल शिला के नीचे ब्रह्मकुण्ड स्थित है। यहां ब्रह्माजी ने तपस्या की थी। ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने पर शिवजी ने वरदान दिया कि इस पुण्यस्थल में जो भी मानव श्राद्ध करेगा, उसे प्रेत योनि में भटकना नहीं पड़ेगा और उसकी सात पीढ़ियों के पितरों का उद्धार हो जाएगा।

देवर्षि नारद का ब्रह्माजी को शाप था, जिसके चलते उनके मन में ब्रह्मी के प्रति कामना उत्पन्न हो गई। ब्रह्मी का सौंदर्य अप्रतिम था। जिसे देखकर सृष्टिकर्ता स्वयं भ्रमित हो गए थे।

पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की धरती पर भगवान बदरीनाथ के चरणों में स्थित है ब्रह्मकपाल। अलकनंदा नदी ब्रह्मकपाल को पवित्र करती हुई यहां से प्रवाहित होती है। इस स्थान के विषय में मान्यता है कि यहां जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनि से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और भगवान विष्णु के परम धाम में स्थान प्राप्त हो जाता है।

पांडव हुए हत्या से मुक्त

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को ब्रह्मकपाल में जाकर पितरों का श्राद्ध करने का निर्देश दिया। श्रीकृष्ण की आज्ञा पर पाण्डव बदरीनाथ की शरण में आये। ब्रह्मकपाल तीर्थ में उन्होंने युद्ध में मारे गये अपने वंशजों और युद्ध में अन्य सभी मृतकों का श्राद्ध किया। इसके बाद सभी पांडव और द्रोपदी स्वर्गारोहण को गये।

विदेशी भी कर रहे श्राद्ध

पिछले कुछ सालों से विदेशी श्रद्धालु भी अपने पितरों के मोक्ष के लिए श्राद्ध करने पहुंच रहे हैं। पहले पड़ोसी देश नेपाल से ज्यादा यात्री आते थे। कुछ वर्षों से अन्य देशों के यात्री भी अपने पितरों के श्राद्ध के लिए ब्रह्म कपाल में आ रहे हैं। इसमें रूस, इंग्लैंड, मलेशिया, हालैंड के यात्रियों की संख्या अधिक है।

सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु के बीच 16 संस्कार होते हैं। मान्यता है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति की मोक्ष कामना के लिए श्राद्ध किया जाता है। बदरीनाथ को मोक्ष का धाम कहते हैं। प्रतिवर्ष देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान नारायण के दर्शन और पितरों के उद्धार के लिए यहां पहुंचते हैं। विदेशी यात्रियों के सामने भाषा एक बड़ी समस्या रहती है, लेकिन द्विभाषिये की सहायता से तीर्थ पुरोहित श्राद्ध कराता है।

श्राद्ध एवं पिण्ड कार्य

बदरी पुरी यात्रा के तीन मुख्य उद्देश्य बताये गये हैं। जब मनुष्य तीर्थ यात्रा पर निकलता है तो उस पर तीन तरह के ऋण होते हैं। पहला ऋषि ऋण, दूसरा पित्र ऋण और तीसरा देव ऋण। केशव प्रयाग में अलकनंदा और सरस्वती नदी के संगम पर स्नान करने से ऋषि ऋण से मुक्ति, ब्रह्मकपाल तीर्थ में पितरों का श्राद्ध से पित्रों का उद्धार और नारायण के दर्शन से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। भगवान नारायण के दर्शन से पूर्व ब्रह्मकपाल में पिण्डदान करने का माहात्म्य है।

पिण्डदान का समय

बदरीनाथ मंदिर के कपाट खुलने के साथ ही ब्रह्मकपाल तीर्थ में श्राद्ध प्रारंभ हो जाता है। कपाट खुलने के दिन भगवान नारायण को पहला भोग लगने के बाद भोग मंडी से प्रसाद ब्रह्मकपाल में लाया जाता है। इसके बाद यहां पिण्ड दान और तर्पण शुरू होता है। ब्रह्मकपाल में पिंडदान और तर्पण प्रतिदिन सूर्योदय के बाद तथा सूर्यास्त से पूर्व किया जाता है।

श्राद्ध का श्रेष्ठ स्थल

गया में श्राद्ध करने के उपरांत अंतिम श्राद्ध, उत्तराखंड के बदरीकाश्रम क्षेत्र के ब्रह्मकपाली में किया जाता है। गया के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। कहते हैं जिन पितरों को गया या अन्य स्थानों पर मुक्ति नहीं मिलती है, उनका यहां श्राद्ध करने से मुक्ति मिल जाती है।

पुराणों के अनुसार यह स्थान महान तपस्वियों और पवित्र आत्माओं का है। श्रीमद्भागवत पुराण अनुसार यहां सूक्ष्म रूप में महान आत्माएं निवासरत हैं। ब्रह्मकपाल में किया जाने वाला पिंडदान आखिरी माना जाता है। इसके बाद उक्त पूर्वज के निमित्त किसी भी तरह का पिंडदान या श्राद्ध कर्म नहीं किया जाता है।

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