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ब्रह्मचारी के संकल्प

एकदा

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एक दिन महर्षि अष्टावक्र ने महर्षि वदान्य के पास जाकर उनकी कन्या से विवाह की इच्छा व्यक्त की। महर्षि वदान्य ने कहा, ‘पुत्र, मैं अपनी कन्या का विवाह तुम्हारे साथ तभी करूंगा जब तुम मेरी एक आज्ञा का पालन करोगे।’ अष्टावक्र ने पूछा, ‘वह क्या आज्ञा है, महर्षि?’ महर्षि वदान्य ने कहा, ‘तुम उत्तर दिशा की ओर जाओ। अलकापुरी और हिमालय पर्वत को पार करते हुए तुम कैलास पर्वत तक पहुंचोगे। वहां एक तपस्विनी वृद्धा रहती है। तुम उसे दर्शन करके लौट आना।’ अष्टावक्र ने महर्षि की आज्ञा को स्वीकार किया। उन्होंने हिमालय की ऊंचाइयों में यात्रा की और वहां एक अत्यन्त सुंदर युवती ने उन्हें मोह लेने के लिए कई प्रकार के छल करती रही। लेकिन अष्टावक्र ने अपनी इच्छाओं को दृढ़ता से नियंत्रित किया। उन्होंने उसे माता कहकर सम्मानित किया। अंततः उस युवती ने अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर कहा, ‘अष्टावक्र! मुझे प्रसन्नता है कि तुमने स्त्री के मोह और आकर्षण से बचकर अपने ब्रह्मचर्य व्रत को न छोड़ा। इस पर ब्रह्मा, इन्द्र और अन्य देवता तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हैं। तुम्हारे द्वारा जो कार्य महर्षि वदान्य के लिए किया गया था, वह अवश्य पूर्ण होगा। महर्षि की कन्या से तुम्हारा विवाह निश्चित है और वह कन्या पुत्रवती भी होगी।’ महर्षि वदान्य ने उनकी तपस्या और संयम से संतुष्ट होकर अपनी कन्या का विवाह अष्टावक्र से तय कर दिया।

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