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सजगता भी जरूरी मूर्ति स्थापना में

गणपति उत्सव
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गणेश चतुर्थी न केवल धार्मिक उत्सव है, बल्कि यह भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक भी है, जिसकी शुरुआत इस वर्ष 27 अगस्त से हो रही है और जो पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है।

गणेश चतुर्थी यानी देशभर में मनाया जाने वाला गणेशोत्सव का पर्व महज धार्मिक पर्व भर नहीं है। यह हमारे देश की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का एक मजबूत प्रतीक भी है। इस साल 26 अगस्त की दोपहर 1 बजकर 54 मिनट से प्रारंभ होकर 27 अगस्त की रात तक गणपति स्थापना का शुभमुहूर्त है। इस तरह दो दिन से लेकर 10 दिन तक मनाये जाने वाले गणेशोत्सव की शुरुआत 27 अगस्त से होगी। गणेश चतुर्थी का पर्व हर साल भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन मनाया जाता है। इस दिन देशभर में बड़ी धूमधाम से गणपति प्रतिमाओं की स्थापना होती है। महाराष्ट्र जैसे राज्य में गणेशोत्सव को राज्योत्सव के रूप में मनाया जाता है।

गणेश पुराण के मुताबिक गणेश चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्म हुआ था। इसलिए भक्तगण इस दिन अपने घरों या सार्वजनिक पूजा स्थलों पर गणेश प्रतिमा स्थापित करते हैं। इस साल 27 अगस्त को गणपति स्थापना के बाद 6 सितंबर यानी अनंत चतुदर्शी के दिन तक यह पर्व मनाया जायेगा। इसके बाद गणपति विसर्जन होगा। जिन गणेश प्रतिमाओं में उनकी सूंड बायीं तरफ होती है, ऐसी प्रतिमाओं को घर लाना शुभ माना जाता है और हां, अगर यह आपका पहला गणपति उत्सव है, तो अपने घर बैठी हुई प्रतिमा ही लाएं, जो सुख, समृद्धि का प्रतीक होती है।

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भगवान गणेश की स्थापना हमेशा ईशान कोण में करनी चाहिए और प्रतिमा को इस तरह विराजमान करना चाहिए कि भगवान गणेश का मुख उत्तर दिशा को हो। गणपति स्थापना काठ की चौकी पर करना सबसे पवित्र होता है। लेकिन इस चौकी में गणपति स्थापना के पहले इसकी गंगा जल से धुलाई करनी चाहिए। गंगा जल व पंच द्रव्यों से चौकी की धुलाई करने के बाद उस पर लाल कपड़ा बिछाकर भगवान गणेश को प्रतिस्थापित करना चाहिए।

ध्यान रखें, आपकी स्थापित मूर्ति में गणेश जी का हाथ आशीर्वाद देती मुद्रा में होना चाहिए और उनके दूसरे हाथ में मोदक होना चाहिए। ऐसी प्रतिमा को सबसे पवित्र माना जाता है। यूं तो पूरे देश में गणेश चतुर्थी का पर्व खूब धूमधाम से मनाया जाता है। लेकिन महाराष्ट्र में इस पर्व को लेकर देश में सबसे ज्यादा उल्लास होता है। हो भी क्यों न, आखिर आधुनिक गणेश उत्सव की शुरुआत सन‍् 1890 में महाराष्ट्र से ही हुई है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1890 में गणेश चतुर्थी के पर्व को आधुनिक सार्वजनिक उत्सव का रूप दिया और इस तरह अंग्रेजों के विरुद्ध देशवासियों को सामाजिक एकता के जरिये गोलबंद किया। आज का गणेशोत्सव बहुत कुछ उसी दौर की परंपरा का विस्तार है। महाराष्ट्र में तो खासकर राज्योत्सव बनने के बाद गणेशोत्सव सामुदायिक भावना, संगीत, नृत्य, कला, अनुराग और मिलन का इंद्रधनुषी पर्व बन चुका है। इसलिए महाराष्ट्र में यह पर्व धार्मिकता से बढ़कर माहौल, पहचान और सांस्कृतिक विरासत के उत्सव का रूप ले चुका है। मुंबई और पुणे में यह पर्व उत्सव की धूम के साथ साथ हर साल बढ़ती भव्यता के रूप में भी देखा जाता है।

मुंबई में लालबागचा का राजा यानी लाल बाग में स्थापित की जाने वाली गणेश प्रतिमा सबसे ज्यादा धूमधाम का प्रतीक होती है। लेकिन लालबाग के पांडाल में एक बार गणेश प्रतिमा स्थापित हो जाने के बाद पूरे समय यहां महाराष्ट्र और देश-विदेश के कोने-कोने से आने वाले भक्तों का तांता लगा रहता है। माना जाता है कि लालबागचा के राजा यानी नौ साझा गणपति का एक बार दर्शनभर कर लेने से लोगों की इच्छाएं पूरी हो जाती है।

यदि शुद्ध रूप से पारंपरिक गणेशोत्सव देखना चाहें तो हमें नागपुर जाना होगा, जहां आज भी पारंपरिक रूप से प्लास्टिक विहीन गणेशोत्सव की स्थापना नागपुर मंे देखने को मिलती है। अनुमान है कि अकेले महाराष्ट्र भर में गणेशोत्सव के दौरान 70 से 80 लाख गणेश प्रतिमाएं गढ़ी जाती हैं। पारंपरिक मिट्टी के अलावा बड़े पैमाने पर गणेश प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस से निर्मित होती हैं, लेकिन हाल के सालों में बढ़ी पर्यावरण सजगता के चलते एक बार फिर से मिट्टी की गणेश प्रतिमाओं की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है। इ.रि.सें.

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