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ज्ञान की जीत

एकदा

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पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला ग्राम में जन्मे होनहार बालक रामतीर्थ की अध्ययन में गहरी रुचि थी। सन 1891 में पंजाब विवि की बी.ए. परीक्षा में पूरे प्रांत में पहला स्थान पाने पर उन्हें 10 रुपये मासिक छात्रवृत्ति भी दी गई। उन्होंने सर्वोच्च अंक प्राप्त करके एमए की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। फिर उसी कॉलेज में गणित के प्रोफेसर बने रामतीर्थ में वैराग्य की भावना जाग्रत हुई और 1901 में उन्होंने लाहौर छोड़कर टिहरी गढ़वाल के कोटी ग्राम में शाल्माली वृक्ष के नीचे ईश्वरीय साधना शुरू की। फिर वे प्रोफेसर रामतीर्थ से स्वामी रामतीर्थ बने। एक बार टिहरी रियासत के तत्कालीन नास्तिक नरेश कीर्तिशाह, स्वामी रामतीर्थ से वाद-विवाद करने आए। स्वामी रामतीर्थ की शांति, तात्विक ज्ञान और तर्कपूर्ण बातों के सामने नरेश की सारी शंकाएं निर्मूल हो गईं। नरेश, स्वामी रामतीर्थ के चरणों में गिर पड़े और आस्तिक हो गए। इसके बाद, उन्होंने स्वामी रामतीर्थ को जापान में होने वाले एक विश्व धर्म सम्मेलन में भेजा। स्वामी रामतीर्थ न केवल एक आदर्श विद्यार्थी और गणितज्ञ थे, बल्कि एक प्रेरणादायक समाज सुधारक, देशभक्त और तत्वज्ञ भी थे। दीपावली के दिन, स्वामी रामतीर्थ ने गंगा नदी में जलसमाधि ले ली।

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