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वाणी की वाचालता

एकदा

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राजा सोमदत्त का निधन हुआ, और राज्य का सारा भार अब राजकुमार तरुण दत्त पर आ पड़ा। तरुण अभी तक पिता की मृत्यु के सदमे से उबर नहीं पाया था और बहुत उदास रहता था। एक दिन उसने मंत्री को बुलाकर कहा, ‘मंत्री जी, अब हम राज-काज संभालना चाहते हैं। कृपया हमें कुछ काम की और ज्ञान की बातें बताएं। हमारे गुण-दोष भी बताएं, ताकि हमें शासन करने में आसानी हो।’ मंत्री सोचने लगे, ‘जिसे अब तक राजकार्य का कोई अनुभव नहीं, उसे मैं क्या समझाऊं?’ फिर भी उन्होंने राजकुमार से कहा, ‘महाराज, व्यावहारिकता यही है कि जब भी बोलें, सोच-समझ कर बोलें या फिर चुप रहें। वाणी के वाचाल हमेशा ही परेशानी में पड़ते हैं। आपके गुण-दोष समय आने पर बताऊंगा।’ राजकुमार ने अनुभवी मंत्री की बात को ध्यान से सुना और चुपचाप उचित समय की प्रतीक्षा करने लगा। एक दिन, राजकुमार और मंत्री शिकार पर गए। दोनों दिनभर वन में घूमते रहे, लेकिन कोई शिकार हाथ नहीं लगा। शाम होते-होते दोनों ने अपने घोड़ों को महल की ओर मोड़ लिया। तभी एक झाड़ी में छिपा तीतर कुछ आवाजें निकालने लगा। राजकुमार ने तीतर की आवाज सुनी, और तुरंत झाड़ी की ओर तीर चला दिया, जो तीतर को जा लगा और वह वहीं गिरकर मर गया। मंत्री ने यह देखकर कहा, ‘नादान प्राणी! यदि तुम चुप रहते, तो आज भी जीवित रहते।’

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