सत्येंद्र पाल सिंह
जब मन धर्म के मार्ग पर चलते हुए विचलित होने लगे, जब अधर्म के जोर से संकल्प निर्बल होने लगे, जब सच को धारण करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता महसूस हो, जब मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए मार्ग प्रकाशित करना हो, जब भ्रम और संशय से उबरना हो, तब श्री गुरु हरिराय साहिब से ली गयी प्रेरणा सारे कार्य सिद्ध करती है। श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब के बाद जब श्री गुरु हरिराय साहिब 14 वर्ष की उम्र में गुरु गद्दी पर विराजमान हुए तो उनके सामने अति चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां थीं। श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब पहले सिख गुरु थे, जिन्होंने शस्त्र धारण किये और सेना का गठन किया। धर्म-जगत के लिए यह आश्चर्यजनक था। एक धर्मात्मा को शस्त्र धारण करते, युद्ध के मैदान में वीरता प्रदर्शित करते देखना बहुत-से लोगों को समझ नहीं आया था। तब श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब ने उनकी शंकाओं का निवारण करते हुए कहा था- बातन फकीरी जाहर अमीरी शसतर गरीब की रखिआ जरवाणे की भखिआ।
श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब की इस महान परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए श्री गुरु हरिराय साहिब सबसे सुयोग्य चयन थे और उन्होंने इसे प्रमाणित भी किया। उन्होंने जहां श्री गुरु नानक साहिब के विचारों को सिख पंथ का दृढ़ आधार बनाया, वहीं सिख पंथ के गौरव को भी नये आयाम दिये। उन्होंने शक्ति को निर्बल का बल और क्रूर का भय बनाकर धर्म को अभय दिया।
श्री गुरु नानक साहिब के पंथ पर चलने का मूल उद्देश्य परमात्मा के प्रेम में मन को रंगना था। श्री गुरु हरिराय साहिब ने इसकी चिंता नहीं की कि जो शक्तियां सिख पंथ के सिद्धांतों का विरोध कर रही हैं, कपट रच रही हैं, उनको कोई सबक सिखाया जाये। गुरु साहिब ने चिंता की कि सिख के मन में परमात्मा के लिए प्रीति कभी कम न हो।
परमात्मा की भक्ति ने उनमें ऐसा बल भरा कि सभी अवरोध स्वयं दूर हो गये। उनका वास्तविक बल परमात्मा की स्तुति में मन का रमना था। यही प्रेरणा उन्होंने लोगों को दी। मन सदैव परमात्मा की भक्ति से जुड़ा रहे और धर्म के प्रति सचेत रहे तो परमात्मा स्वयं आगे आकर कृपा करता है। श्री गुरु हरिराय साहिब ने धर्म-प्रचार के लिए यात्राएं की और श्री गुरु नानक साहिब द्वारा स्थापित परंपरा का अनुसरण करते हुए सीधे संवाद को प्राथमिकता दी।
श्री गुरु हरिराय साहिब हर मनुष्य के अंतर को निर्मल गुणों से जोड़ना चाहते थे- गुरमुखि गिआनु बिबेक बुधि होइ।। हरि गुण गावै हिरदै हारु परोई।।
श्री गुरु हरिराय साहिब ने एक बड़ा दवाखाना भी बनवाया था, जिसमें दूर-दूर से दुर्लभ औषधियां लाकर एकत्र की गयी थीं। यह प्रसिद्ध था कि जो रोग कहीं ठीक न होता हो, वह गुरु साहिब के इस दवाखाने में उपचार से जड़ से चला जाता है। एक बार मुगल बादशाह शाहजहां का पुत्र दारा शिकोह गंभीर रूप से बीमार हो गया। बहुत-से हकीम, वैद्य इलाज कर हार गये। उसे मरणासन्न अवस्था में देखकर शाहजहां निराश हो गया। उसके दरबारियों ने उसे गुरु साहिब के दवाखाने के बारे में बताया। श्री गुरु हरिराय साहिब की दी दवा से वह जल्द स्वस्थ हो गया। शाहजहां क्रूर शासक था और उसने गुरु हरिगोबिंद साहिब से पूरी शत्रुता निभाई थी। जब सिखों ने गुरु हरिराय साहिब को शाहजहां के पुत्र की सहायता करते देखा तो इसका कारण जानना चाहा। गुरु साहिब ने उन्हें समझाया कि सिखी में बदले की भावना का कोई स्थान नहीं है। कोई शत्रुता भी करता है तो उसका भला करना सिख का धर्म है। सच धारण करने व सच के मार्ग पर चलने के लिए निर्मल व कोमल मन चाहिये जो दुखी के दुख, पीड़ित की पीड़ा, रोगी के रोग को समझ सके। दूसरे के दुख की अनुभूति करना और उसे दूर करने को अपना धर्म मानना, अपने जीवन को सफल करने जैसा है। गुरु साहिब की यह प्रेरणा समाज और व्यक्ति दोनों के हित में थी।
(साभार गुरमत ज्ञान)