एक बार भारत के दार्शनिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने रूस के तानाशाह जोसेफ स्टालिन से मुलाकात की। बातचीत के दौरान स्टालिन ने कहा, ‘हम नास्तिक हैं। हम ईश्वर को नहीं मानते।’ इस पर डॉ. राधाकृष्णन ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ‘मैं यह सिद्ध कर सकता हूं कि आप न केवल ईश्वर को मानते हैं, बल्कि उसकी उपस्थिति को भी स्वीकार करते हैं।’ राधाकृष्णन ने आगे पूछा, ‘आप क्या चाहते हैं कि आपके अधिकारी आपसे सच बोलें या झूठ?’ स्टालिन ने कहा, ‘मैं चाहता हूं वे सच बोलें। जो झूठ बोलेगा, उसे कड़ी सजा दी जाएगी।’ फिर राधाकृष्णन ने पूछा, ‘क्या आप मानवता का कल्याण चाहते हैं?’ स्टालिन ने उत्तर दिया, ‘हम गरीबों और शोषितों के कल्याण के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं।’ अंत में राधाकृष्णन ने प्रश्न किया, ‘क्या आप अपने देश को सुंदर बनाना चाहते हैं या कुरूप?’ स्टालिन बोले, ‘हम अपने देश को सुंदर और सशक्त बनाना चाहते हैं।’ तब डॉ. राधाकृष्णन मुस्कराए और बोले, ‘तो आप ‘सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्’ को स्वीकार करते हैं। यही तो ईश्वर का स्वरूप है। अतः आप ईश्वर को न मानने का दावा करते हुए भी, उसके मूल तत्वों को स्वीकार करते हैं। इसका अर्थ है कि आप नास्तिक नहीं हैं।’ स्टालिन इस तर्क से बहुत प्रभावित हुआ। कहा जाता है कि इसके बाद उसमें भारतीय दर्शन के प्रति गहरी रुचि जाग्रत हुई और वह अक्सर डॉ. राधाकृष्णन को बुलाकर ‘भगवद्गीता’ का तत्वज्ञान सुना करता था।
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