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मुक्ति की राह

एकदा
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राजा परीक्षित को शृंगी ऋषि के श्राप से ज्ञात हुआ कि सातवें दिन उनका सर्पदंश से निधन होगा। वे मृत्यु के भय से व्याकुल थे। तब शुकदेवजी ने उन्हें एक कथा सुनाई— ‘एक राजा शिकार करते समय जंगल में भटक गया। रात होने पर उसे एक गंदी, दुर्गंधयुक्त झोपड़ी दिखी, जहां एक बीमार बहेलिया रहता था। राजा ने रात बिताने की प्रार्थना की। बहेलिए ने मना करते हुए कहा, ‘जो भी यहां ठहरता है, सुबह इस झोपड़ी से मोह कर बैठता है।’ राजा ने वचन दिया कि वह सुबह अवश्य जाएगा। लेकिन रातभर आराम की आदत से सुबह राजा झोपड़ी छोड़ना नहीं चाहता था और बहेलिए से झगड़ पड़ा।’ शुकदेवजी ने पूछा, ‘क्या राजा का व्यवहार उचित था?’ परीक्षित बोले, ‘नहीं, उसे वचन निभाना चाहिए था। वह मूर्ख था जो गंदी झोपड़ी से मोह कर बैठा।’ शुकदेवजी मुस्कराए, ‘वह राजा कोई और नहीं, स्वयं तुम हो। यह शरीर भी मल-मूत्र की झोपड़ी जैसा है। आत्मा को इसे छोड़कर आगे बढ़ना है।’ यह सुन परीक्षित का मोह दूर हो गया और उन्होंने शांत चित्त से मृत्यु को स्वीकार कर आत्मिक उत्थान की तैयारी शुरू कर दी।

प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा

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