एक बार आयुर्वेद की कक्षा में शिष्य ने गुरुजी से पूछा, ‘गुरुदेव! मन को शुद्ध रखने और धर्म पालन का उपाय क्या है? क्या केवल पूजा-पाठ से ही यह प्राप्ति हो सकती है?’ गुरुजी ने उत्तर दिया, ‘वत्स! मात्र पूजा-पाठ से धर्म की पूर्णता नहीं होती। इसके लिए स्वयं को पापकर्मों से मुक्त रखना आवश्यक है। धर्म का आधार सदाचार है।’ शिष्य ने पूछा, ‘गुरुदेव! पापकर्म क्या होते हैं?’ गुरुजी ने अष्टाङ्गहृदय का संदर्भ देते हुए कहा, ‘वाग्भट्ट ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य तक पाप तीन मार्गों से पहुंचते हैं — शरीर, वाणी और मन से। शरीर से होने वाले पाप हैं—हिंसा करना, प्राणियों का अनावश्यक वध करना, चोरी करना और निषिद्ध स्त्रियों या परस्त्रीगमन करना। ये सब आत्मा को कलुषित करते हैं। वाणी से होने वाले पाप हैं—चुगली करना, कठोर और अपमानजनक बोलना, असत्य बोलना और व्यर्थ बात करना। जैसे जिह्वा असंयमित हो तो वह अग्नि की भांति सब कुछ जलाती है। मानसिक पाप हैं—दूसरों के लिए हिंसा की भावना रखना, ईर्ष्या करना, उनके गुण सहन न कर पाना, इंद्रियों से विषयों की अनियंत्रित इच्छा रखना और शास्त्र सम्मत सत्य दृष्टि के विपरीत सोचना। ये सब मन को अशांत और पापमय बनाते हैं।’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुदेव! निष्कर्ष यह है कि हिंसा आदि दस प्रकार के पाप शरीर, वाणी और मन से मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं।’ गुरुजी ने समझाया, ‘वत्स! शरीर को सदाचार में लगाना ही धर्म का मार्ग है। यही जीवन को सच्चा सुख और शांति प्रदान करता है।’
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