भाद्रपद अमावस्या, जिसे कुशेत्पाटिनी अमावस्या भी कहते हैं, हिन्दू संस्कृति में तंत्र साधना, पितृ तर्पण और श्राद्ध के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तिथि है। यह दिन आध्यात्मिक शुद्धि, आत्ममंथन और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर प्रदान करता है। इसी दिन धार्मिक कर्मों हेतु पवित्र कुशा एकत्र की जाती है। साथ ही यह पितृ पक्ष की शुरुआत का प्रतीक है, जब पितृलोक के द्वार खुलते हैं और पूर्वज अपने वंशजों से तर्पण स्वीकार करते हैं। यह तिथि केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मीय परंपराओं का जीवंत उत्सव है।
आगामी 23 अगस्त को भाद्रपद अमावस्या है। इसे कुशेत्पाटिनी अमावस्या भी कहते हैं। इस अमावस्या का विशेष रूप से तंत्र साधना, पितृ-तर्पण और श्राद्ध करने के लिए महत्व है। इस दिन ही धार्मिक कामकाज के लिए कुशा एकत्र की जाती है। यह दिन पितरों को समर्पित होता है, इसलिए इस दिन पिंडदान तर्पण और श्राद्ध जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं।
कुशा एकत्र करने का अवसर
गौरतलब है कि हिंदू धर्म के कर्मकांडों में जगह-जगह जिस पवित्र घास कुशा का उपयोग होता है, उस कुशा को इसी दिन धार्मिक उपयोग हेतु एकत्र किया जाता है। लेकिन यह दिन विशेष रूप से दो और बातों के लिए भी प्रसिद्ध है। एक तो काल सर्प दोष से मुक्ति पाने के लिए इस दिन विशेष उपाय किये जाते हैं और दूसरी बात यह होती है कि यह दिन तंत्र साधना के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।
तंत्र साधना और 'सिद्ध रात'
भाद्रपद अमावस्या को विशेष रूप से गुप्त साधनाओं हेतु उपयुक्त माना जाता है। इसलिए तंत्र विद्या में इस अमावस्या की रात को ‘सिद्ध रात’ कहा जाता है और इस रात विभिन्न शक्तिपीठों में गुप्त रूप से साधना की जाती है, जिसके इच्छित फल मिलते हैं।
हिंदू पंचांग के मुताबिक भाद्रपद अमावस्या भादो माह के कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि होती है। इस तिथि को आकाश में चंद्रमा दृष्टिगोचर नहीं होता। अमावस्या की यह रात विशेष रूप से तंत्र साधना, पितृ पूजन और गुप्त पूजा के लिए सबसे उपयुक्त रात मानी जाती है।
पितृ पक्ष की शुरुआत
भाद्रपद अमावस्या से पितृ पक्ष की शुरुआत मानी जाती है। इस दिन से पूर्वजों के तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। माना जाता है कि इस दिन पितृ लोक के द्वार खुलते हैं और पूर्वज अपने परिजनों से तर्पण ग्रहण करने हेतु पृथ्वी पर आते हैं। इस दिन किया गया जल दान, अन्न दान और श्राद्ध कर्म विशेष रूप से फलदायी माने जाते हैं। इस दिन गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में स्नान करने का विशेष पुण्य फल बताया गया है। इन पवित्र नदियों में स्नान करने के बाद लोग इस दिन अपने पितरों यानी पूर्वजों के नाम से तिल, जल, वस्त्र और अन्न का दान करते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
शनि देव और काल भैरव की पूजा
भाद्रपद अमावस्या को काल भैरव और शनि देव की पूजा भी विशेष रूप से की जाती है। माना जाता है कि ऐसा करने से जीवन के संकट, रोग, शत्रु बाधाएं और मानसिक परेशानियां कम होती हैं। तंत्र साधना के लिए यह दिन विशेष रूप से श्रेष्ठ दिन माना जाता है। चूंकि अमावस्या का संबंध अंधकार से होता है, लेकिन यही वह स्थिति होती है, जब प्रकाश का जन्म होता है। भाद्रपद अमावस्या हमें यह सिखाती है कि जीवन के अंधकारमय पक्षों को भी स्वीकार करना जरूरी है, तभी हमारा समग्र रूप से आत्मिक विकास होता है।
मानसिक उन्नति का भी दिन
इस दिन को आत्ममंथन और तप का विशेष दिन माना जाता है, जो लोग इस दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करते हैं, वे लोग उपवास रखते हैं और पूरा दिन व्रत, ध्यान और आत्मचिंतन में गुजारते हैं। इसलिए इस दिन को आत्मिक शुद्धि और मानसिक उन्नति का दिन भी माना जाता है। इन दोनों स्थितियों के लिए यह दिन बहुत अनुकूल होता है।
सांस्कृतिक परंपराएं और मेले
यह महज कर्मकांड नहीं होता बल्कि अपने पूर्वजों के साथ आत्मिक जुड़ाव का एक जरिया होता है। वास्तव में यह दिन और यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि हम अकेले नहीं हैं। हमारे साथ हमारे पितरों का आशीष, अनुभव और संस्कार भी हैं। भाद्रपद अमावस्या के दिन परिवार के सभी सदस्य एक साथ मिलकर पितरों की पूजा करते हैं। इस पूजा में एक आत्मीय सामूहिक भाव होता है, जो परिवार में परंपरा, श्रद्धा और आपसी संबंधों की डोर को मजबूत करता है। भारत के विभिन्न हिस्सांे में खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश में विभिन्न नदियों के किनारे भाद्रपद अमावस्या को मेले लगते हैं और धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। कहीं-कहीं पूरा गांव मिलकर पितरों की पूजा करते हैं।
पीपल वृक्ष और बरमदेव पूजा
इस दिन पीपल के वृक्ष की भी पूजा किये जाने का चलन है। माना जाता है कि बरमदेव की इस दिन पूजा करने से पितरों की हमें विशेष कृपा प्राप्त होती है। कुछ क्षेत्रों में इस दिन नई फसल के पहले फल या बीज को अपने पितरों को समर्पित किये जाने की परंपरा है।
कृषि संस्कृति
चूंकि भाद्रपद अमावस्या के समय वर्षा ऋतु लगभग समाप्त हो रही होती है, सो इस दिन किसान लोग अन्नपूर्णा यानी धरती की पूजा भी करते हैं। किसान धरती को अपनी मां मानते हैं और अपना पेट भरने के लिए भाद्रपद अमावस्या को किसान धरती की विशेष रूप से पूजा करके अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इसके पीछे यह भी मान्यता है कि इस दिन धरती की पूजा करने पर पितरों की कृपा से अगली फसल समृद्ध होगी।
आस्था और आत्मिक संबंध
अगर सांस्कृतिक विस्तार और आध्यात्मिक गहनता के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भाद्रपद अमावस्या केवल एक तिथि नहीं बल्कि हमारी संस्कृति, आस्था और आत्मीय संबंधों का संगम है। यह अमावस्या हमें अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर देती है। साथ ही हमें आत्मिक रूप से मजबूत बनाती है। भाद्रपद अमावस्या सीख देती है कि चाहे जीवन में कितना भी अंधकार हो, लेकिन आस्था, ध्यान और परंपरा के दीयों से इस अंधकार को दूर किया जा सकता है।
आत्मिक चिंतन का मार्गदर्शन
पितरों की स्मृति में की जाने वाली भाद्रपद अमावस्या की साधना भारतीय जीवन संस्कृति की उस परंपरा का हिस्सा है, जहां हर जीवन के पीछे अनगिनत जिंदगानियों की छाया और आशीष मौजूद होता है। भाद्रपद अमावस्या हमें जीवन के अंधकार पक्षों को भी स्वीकार करने का संबल देती है तथा उसे अपने आत्मिक चिंतन का मार्गदर्शन समझती है। इ.रि.सें.