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परोपकार का आनंद

एकदा

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भारद्वाज के वंश में जन्मे रंतिदेव का नियम था कि भाग्य से उन्हें जो मिलता, उसमें से कुछ दूसरों को दे देते और बचे हुए से अपना और परिवार का पेट पाल लेते। एक बार उन्हें कई दिन तक कुछ खाने-पीने को नहीं मिला। उन्होंने धीरज नहीं खोया। अंत में उन्हें खाना व पानी दोनों चीजें मिली। दूसरों को बांटकर ज्यों ही वह खाने को बैठे एक भूखा ब्राह्मण आ गया। रंतिदेव ने उसे जिमा दिया। बचे हुए भोजन को वे खाने बैठे तो एक और भूखा आदमी आ निकला। रंतिदेव ने उसे भी खाना खिला दिया। उसके बाद जो थोड़ा-बहुत बचा, उसे वे खाने को हुए कि एक अन्य अतिथि कुछ कुत्तों समेत आ पहुंचा। रंतिदेव के पास जो कुछ बचा था, वह सब उनको खिला दिया। अब उनके पास सिर्फ थोड़ा पानी रह गया था। इतने लोगों को जिमाकर वे खुश हो रहे थे। ‘मेरा क्या है, मैं पानी से गुजर कर लूंगा।’ यह सोचकर वे जैसे ही पानी पीने को हुए कि एक प्यासा व्यक्ति आ गया, जिसकी जुबान सूख रही थी। उसे देख रंतिदेव ने मन में सोचा, ‘हे भगवान, यह बेचारा बिना पानी के मरा जा रहा है। प्रभु मुझे शक्ति दे कि मैं भूखे-प्यासों को कुछ खिलाता-पिलाता रहूं, ताकि उन बेचारों को कुछ सहारा मिल सके।’ रंतिदेव के पास जितना पानी बचा था, उसने सारा उस प्यासे को पिला दिया। उसकी प्यास बुझाकर रंतिदेव का हृदय आनंद से गद्गद हो गया। उन्हें न खाना मिला, न पानी, पर जो मिला, उसकी बराबरी कौन कर सकता है?

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