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अंतिम संदेश में मुखरित आत्मा का अमर स्वर

परमहंस योगानंद महासमाधि दिवस 7 मार्च

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महासमाधि से ठीक पहले का परमहंस योगानंद का संबोधन आज भी एक प्रेरणास्रोत बना हुआ है। जो मानव एकता, आत्मज्ञान और विश्वशांति के लिये संदेश था। उनका संबोधन ’मेरे भारत, मेरे अमेरिका और मेरे विश्व के सभी अतिथियों को मेरा नमन‍्। मैं आप सभी में ईश्वर को नमन करता हूं।’— उनकी जीवन साधना व सार्वभौमिक प्रेम का सार था।

डॉ. मधुसूदन शर्मा

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सात मार्च, 1952 को अमेरिका में लॉस एंजेलिस के बिल्टमोर होटल में आयोजित ऐतिहासिक समारोह का मकसद भारत व अमेरिका के बीच आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ करना था। इस अवसर पर भारत के तत्कालीन राजदूत बिनय आर. सेन सहित कई गणमान्य अतिथि उपस्थित थे। इस समारोह का केंद्र बिंदु थे परमहंस योगानंद जी, जिन्होंने क्रियायोग विज्ञान को पश्चिमी जगत तक पहुंचाया।

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जब उन्होंने बोलना प्रारंभ किया, तो लगा मानो उनकी आत्मा के गहनतम अनुभव स्वयं शब्दों में रूपांतरित हो रहे हों। उनकी वाणी में सनातन आध्यात्मिक विरासत की पवित्रता और अमेरिका की भौतिक उपलब्धियों का संगम था। वे संपूर्ण मानवता को एकता, करुणा और विश्वशांति का संदेश दे रहे थे। उनका यह संबोधन एक आध्यात्मिक तरंग थी, जो उपस्थित श्रोताओं के हृदय में दस्तक दे रही थी। इस भाषण में एक संत के जीवन का दिव्य संदेश था।

परमहंस जी का महासमाधि से ठीक पहले का भाषण आज भी एक प्रेरणास्रोत बना हुआ है, जो मानव एकता, आत्मज्ञान और विश्वशांति के लिए संदेश था। उनके भाषण में निहित ‘मेरे भारत, मेरे अमेरिका और मेरे विश्व के सभी अतिथियों को मेरा नमन‍्। मैं आप सभी में ईश्वर को नमन करता हूं।’—ये शब्द उनकी संपूर्ण जीवन साधना और उनके सार्वभौमिक प्रेम का सार थे। योगानंद जी ने अपने जीवन में पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु का कार्य किया। उन्होंने भारत की प्राचीन योग परंपरा को पश्चिमी जगत तक पहुंचाया और वहां इसे आत्मसात‍् होते देखा। जब वे कहते हैं ‘मेरे भारत, मेरे अमेरिका और मेरे विश्व के सभी अतिथियों को मेरा नमन‍्’, तो यह केवल देशों का उल्लेख नहीं था, बल्कि उनकी यह गहरी अनुभूति थी कि संपूर्ण पृथ्वी ही एक परिवार है—‘वसुधैव कुटुम्बकम‌्’। उनका यह संबोधन दर्शाता है कि वे किसी एक देश के नहीं, बल्कि समस्त विश्व के नागरिक थे। उनकी दृष्टि सीमाओं से परे थी। जब उन्होंने यह कहा, मैं आप सभी में ईश्वर को नमन‍‍् करता हूं, तो इसका अर्थ था कि वे केवल शरीर, नाम, पद, धर्म या राष्ट्रीयता को नहीं, बल्कि आत्मा की दिव्यता को प्रणाम कर रहे थे।

परमहंस योगानंद जी ने अपने संबोधन में महात्मा गांधी को याद करते हुए कहा, ‘महात्मा गांधी ने युद्धरत आधुनिक विश्व के लिए शांति का एक व्यावहारिक उपाय दिया। सभी राष्ट्रों को अपने संघर्षों के समाधान हेतु उसे अपनाना चाहिए।’ वर्ष 1952 में जब योगानंद जी यह कह रहे थे, तब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुए कुछ ही वर्ष हुए थे और शीत युद्ध का दौर चल रहा था। विश्व एक और बड़े संघर्ष की ओर बढ़ रहा था। ऐसे में संघर्षों के समाधान हेतु वे इस ओर संकेत कर रहे थे कि गांधीजी की शिक्षाएं केवल भारत की स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थीं, बल्कि वे सार्वभौमिक हैं और आज भी पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक है।

तब कॉन्फ्रेंस हाल में परमहंस ने कहा, ‘यदि हम विभिन्न देशों के महान व्यक्तियों व अमेरिका के उद्योगपतियों को साथ लाएं तो हम एक ऐसा आदर्श समाज बना सकते हैं, जिससे संपूर्ण विश्व अंततः एक साथ संगठित हो जाए।’ परमहंस योगानंद के इन शब्दों में एक दिव्य वैश्विक समाज की परिकल्पना निहित थी, जहां संकीर्ण राष्ट्रवाद और भौतिक संघर्षों से ऊपर उठकर संपूर्ण मानवता एक संयुक्त विश्व परिवार के रूप में संगठित हो।

उन्होंने अपने संबोधन में चिंता जतायी—हमेशा युद्ध के लिए धन उपलब्ध रहता है, जिससे केवल विनाश और पीड़ा उत्पन्न होती। यदि दुनिया के सभी प्रमुख राजनेता मिलकर युद्ध की सोच त्याग करें तो इस पर खर्च होने वाले धन से धरती से गरीबी और अज्ञानता मिट सकती है। इस विश्व का मार्गदर्शन ईश्वर प्रेरित अंतःकरण से संभव है। योगानंद जी के इन शब्दों में मानवता के प्रति असीम करुणा और सार्वभौमिक प्रेम की गहराई प्रकट होती है। यह मानवता के लिए आत्मचिंतन का आह्वान है। वे कहते थे—‘हमें वैज्ञानिकों, राजदूतों और धार्मिक नेताओं की एक ऐसी परिषद की आवश्यकता है, जो सतत‍् यह विचार करे कि इस संसार को किस प्रकार एक श्रेष्ठ और आध्यात्मिक गृह बनाया जाए, जिसमें ईश्वर हमारा मार्गदर्शक हो।’

संबोधन के अंत में, योगानंद जी ने अपनी कविता ‘मेरा भारत’ की कुछ पंक्तियां पढ़ी—‘ईश्वर सृजित पृथ्वी में गंगा, वनों, हिमालयी गुफाओं में लोग ईश्वर का स्वप्न देखते हैं, मैं धन्य हूं कि मेरा शरीर उस पावन धरा से स्पर्श कर चुका है।’ कविता के ये अंतिम शब्द भारत के प्रति उनकी भक्ति और कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है। उन्होंने जीवनभर भारत की योग-परंपरा, गंगा की पवित्रता और हिमालय की तपोभूमि को सर्वोच्च स्थान दिया। वे स्वयं को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का एक अंश मानते थे। इस भाषण की समाप्ति के तुरंत बाद परमहंस योगानंद जी महासमाधि में लीन हो गए। शब्द मौन में विलीन हो गए और एक युगदृष्टा का नश्वर शरीर ब्रह्मांड में विलीन हो गया।

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