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प्रतिस्पर्धा का भ्रम

एकदा
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एक दिन एक धावक ने अपने गुरु से कहा, ‘मैं हमेशा दूसरों से तेज दौड़ना चाहता हूं और सबसे आगे रहना चाहता हूं। लेकिन यह प्रतिस्पर्धा मुझे थका देती है।’ गुरु ने मुस्कुराते हुए उसे दो रेस में भाग लेने को कहा। पहली रेस में धावक को अन्य तेज धावकों के साथ दौड़ाया गया। वह पूरी ताकत से दौड़ा, लेकिन जीत नहीं पाया। वह निराश हो गया। दूसरी रेस में गुरु ने उसे अकेले दौड़ने को कहा। इस बार वह सबसे तेज था, लेकिन केवल इसलिए क्योंकि कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। गुरु ने समझाया, ‘पहली दौड़ में तुम दूसरों से जीतने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए थक गए। दूसरी में तुम सिर्फ खुद से बेहतर बनने के लिए दौड़े, इसलिए जीत तुम्हारी थी।’ गुरु बोले, ‘जीवन में असली प्रतिस्पर्धा दूसरों से नहीं, बल्कि खुद से होती है। अगर तुम हर दिन खुद को बीते दिन से बेहतर बनाते हो, तो यही सच्ची जीत है।’ धावक को अपनी गलती समझ आ गई और उसने खुद से प्रतिस्पर्धा करना शुरू कर दिया।

प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार

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