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भारतीय जीवन में अहिंसा के सबसे बड़े प्रवर्तक

भगवान महावीर जयंती 10 अप्रैल

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भगवान महावीर का अनेकांतवाद कहता है कि किसी भी वस्तु या विचार को केवल एक दृष्टिकोण से देखना सही नहीं है। हर चीज़ में अनेक पहलू होते हैं, और विभिन्न दृष्टिकोणों से ही पूर्ण सत्य जाना जा सकता है। यह दर्शन भारतीय समाज में सहिष्णुता और बहुलतावाद की नींव बना।

आर.सी.शर्मा

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जैन महाधर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर अनेकांतवाद दर्शन के प्रवर्तक हैं, जिसका सार यह है कि सत्य को एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसे देखने और जानने के अलग-अलग अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं। वास्तव में भारत की बहुलवादी सहिष्णु संस्कृति की नींव में भगवान महावीर का यही दर्शन है। विश्व को भारतीय समाज की दो सबसे महान देनों में से एक अहिंसा का समग्र दर्शन है और दूसरा अनेकांतवाद का विचार और ये दोनों जैन धर्म और भगवान महावीर ने दिए है। भारतीय समाज अगर दुनिया में सबसे ज्यादा बहुलवादी और सहिष्णु समाज रहा है तो उसमें इन दोनों ही विचारों की केन्द्रीय भूमिका है। यही वजह है कि भगवान महावीर का भारतीय धर्म और संस्कृति में एक अनूठा और अपरिवर्तनीय स्थान है।

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अहिंसा को सर्वोच्च आदर्श

भगवान महावीर ने अहिंसा के विचार को सिर्फ शारीरिक हिंसा तक सीमित नहीं रखा, बल्कि विचारों, शब्दों और कर्मों से भी हिंसा न करने पर जोर दिया। उन्होंने इसे एक व्यापक जीवन-दर्शन बना दिया, जिसका प्रभाव आगे चलकर बौद्ध धर्म, भारतीय समाज की सहिष्णुता पर बहुत गहराई से पड़ा।

तपस्वी जीवन

भारत के अन्य संतों और धर्म-प्रवर्तकों ने भी त्याग और तपस्या की शिक्षा दी है, लेकिन भगवान महावीर इसके स्वयं चरम उदाहरण बने हैं। उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या कर सिद्ध किया कि आत्मा को शुद्ध करने के लिए कठोर तप आवश्यक है। भगवान महावीर ने आत्मसंयम, इच्छाओं पर नियंत्रण, और आत्मशुद्धि को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया। यह भारतीय संन्यास परंपरा और योग साधना के मूलभूत सिद्धांतों से मेल खाता है।

समाज के प्रवर्तक

भगवान महावीर ने जाति, वर्ग और लिंग के भेदभाव को नकारा और यह स्थापित किया कि मोक्ष प्राप्ति के लिए सभी समान हैं। उनकी यह विचारधारा बाद में भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों के लिए प्रेरणास्रोत बनी।

करुणा के सागर

भगवान महावीर के सिद्धांत केवल मनुष्य तक सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने समस्त जीव-जंतुओं के प्रति करुणा रखने का संदेश दिया। भगवान महावीर केवल जैन धर्म के नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा के अनिवार्य स्तंभ हैं। उनका योगदान न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक, दार्शनिक और नैतिक स्तर पर भी अतुलनीय है।

अनंत आयाम

धरती में अहिंसा का विचार यूं तो भगवान महावीर से भी पहले से मौजूद था, ऋग्वैदिक काल की वैदिक परंपरा में भी कुछ हद तक अहिंसा का उल्लेख मिलता है, विशेष रूप से यजुर्वेद और अथर्ववेद में, जहां सभी प्राणियों के प्रति करुणा और दयाभाव की बातें कही गई हैं। कठोपनिषद और छांदोग्य उपनिषद में भी अहिंसा को आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बताया गया है। भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) से लेकर पार्श्वनाथ (तेईसवें तीर्थंकर) तक ने भी अहिंसा का उपदेश दिया है। बौद्ध परंपरा में गौतम बुद्ध (जिनका काल महावीर के लगभग समकालीन था) ने भी अहिंसा का प्रचार किया, लेकिन यह पहले से ही एक स्थापित सिद्धांत था।

लेकिन अहिंसा के विचार को अनंत आयाम दिया है भगवान महावीर ने। उन्होंने इसे सबसे स्पष्ट, व्यापक और व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने इसे एक संपूर्ण जीवनशैली और दर्शन के रूप में विकसित किया। भगवान महावीर ने अहिंसा को सार्वभौमिक बनाया। उन्होंने अहिंसा को केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि सभी जीवों तक विस्तारित किया। विचार, शब्द और कर्म में अहिंसा उन्होंने ही सिखाया।

अनूठी देन

भगवान महावीर की सबसे अनूठी और मौलिक देन अनेकांतवाद है। यह सिद्धांत भारतीय धर्म-दर्शन में उनके पहले स्पष्ट रूप से विकसित नहीं था। अनेकांतवाद का अर्थ है कि सत्य और वास्तविकता को केवल एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसके अनेक पक्ष होते हैं।

अन्य दर्शनों से अलग

वैदिक दर्शन- वेदांत और अन्य वैदिक विचारधाराएं सत्य को एकपरम सत्ता (ब्रह्म) में समाहित मानती थीं।

बौद्ध दर्शन- बुद्ध ने चार आर्य सत्यों और अनात्मवाद की अवधारणा दी, लेकिन सत्य को बहुस्तरीय रूप में नहीं देखा। जबकि अनेकांतवाद कहता है कि किसी भी वस्तु या विचार को केवल एक दृष्टिकोण से देखना सही नहीं है। हर चीज़ में अनेक पहलू होते हैं, और विभिन्न दृष्टिकोणों से ही पूर्ण सत्य जाना जा सकता है। यह दर्शन भारतीय समाज में सहिष्णुता और बहुलतावाद की नींव बना।

वास्तव में यह वैज्ञानिक सोच और बहुआयामी दृष्टिकोण के लिए भी प्रेरणास्रोत है। कुल मिलाकर अनेकांतवाद भारतीय दर्शन की एक ऐसी मौलिक अवधारणा है, जिसे भगवान महावीर ने प्रतिपादित किया और यह उनके पहले व्यवस्थित रूप से नहीं पाई जाती थी। इ.रि.सें

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