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प्रथम पूज्य मंगल स्वरूप गणपति

श्रीगणेश चतुर्थी 27 अगस्त
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गणेश जी शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के परिचायक हैं। गणेश जी, लक्ष्मी जी व सरस्वती जी के साथ पूजे जाते हैं। उन्होंने दोनों को आदर्श रूप में समन्वित कर रखा है। अपने बुद्धि चातुर्य के कारण वे प्रथम पूज्य हुए और ऋद्धि-सिद्धि के कारण संपत्ति के अधिष्ठाता भी हुए। इस प्रकार विद्या, बुद्धि और सम्पत्ति के एक साथ दाता श्री गणेश जी माने जाते हैं। ऐसा अद्भुत समन्वय श्री गणेश जी में ही दृष्टिगोचर होता है।

भारतीय संस्कृति में गणेश जी को प्रथम पूज्य देवता का स्थान प्राप्त है। उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी माना गया है। वे प्रत्येक शुभ कार्य को सफल बनाते हैं, इसलिए हर मंगल कार्य के आरंभ में गणेश जी की वंदना अनिवार्य समझी गई है। कहा भी गया है ‘वंदे शैल सुतासुतं गणपति सिद्धिप्रदम‍् कामदाम‍्।’ दैनिक जीवन के प्रत्येक शुभ अवसर पर गणेश जी का शुभ स्मरण प्रत्येक भारतीय के मन में अनायास ही हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में ‘प्रथम पूजिये गौरी पुत्र गणेश’ कहकर श्री गणेश जी की प्रथम स्तुति के साथ उनकी महत्ता प्रतिपादित की है। स्वयं महर्षि व्यास ने ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्य की रचना गणेश जी के सहयोग से की।

गणेश जी के प्रथम पूज्य होने के संबंध में अनेक कथाएं लोकजीवन में प्रचलित हैं। वे रुद्रगणों के अधिपति हैं, अतः कार्यारम्भ में उनकी प्रथम पूजा करने से उस कार्य के संपादन में रुद्रगण कोई विघ्न उत्पन्न नहीं करते और कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होता है।

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एक कथा के अनुसार गणेश जी ने भगवान शंकर एवं माता पार्वती जी की प्रदक्षिणा की, क्योंकि ‘माता साक्षात‍् क्षितेस्तनु’ अर्थात‍् माता साक्षात‍् वसुंधरा है और पिता प्रजापति के स्वरूप हैं। इस प्रकार गणेश जी ने माता-पिता की भक्ति का आदर्श भी स्थापित किया।

गणेश पुराण में भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश जी जन्म होना बताया गया है। कुछ ग्रंथों में भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मध्याह्न में गणेश जी का प्रकट होना बताया गया है। वैसे भविष्य पुराण की मान्यता के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी गणपति जयंती के समकक्ष ही मानी गई है और चतुर्थी व्रत का महत्व बताया गया है। संकष्ट चतुर्थी को संकट हरने के लिए गणेशजी की पूजा-अर्चना व व्रत का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है।

गणेश जी की शारीरिक आकृति अत्यंत सारगर्भित है। उनका प्रत्येक अंग किसी न किसी रहस्य को लिए और सफल व सुखी जीवन के लिए प्रेरणादायक है। उनका छोटा कद इस बात का द्योतक है कि सरलता व नम्रता जैसे गुणों को आत्मसात‍् कर अपने को छोटा मानने वाला ही महानता के उच्च शिखर पर पहुंच कर पूजा जाता है। वे बड़ा पेट होने के कारण लंबोदर कहलाते हैं।

गणेश जी शुपकर्ण कहलाते हैं। उनके सूप के आकार की भांति बड़े-बड़े कान इस बात के परिचायक हैं कि वे सबकी प्रार्थना सुनते हैं। वे इस बात की प्रेरणा भी देते हैं कि हमें हमेशा अपनी बात दूसरों पर न थोपते हुए सभी की बात सुनने का अभयस्त होना चाहिए। गजेंद्र बदन गणेश जी का गज मस्तक रूपी विशाल सिर दूरदृष्टि लिए विशाल दृष्टिकोण व गंभीरता का प्रतीक है।

गणेश जी वक्रतुंड हैं। उनकी लम्बी नाक या सूंड स्वाभिमान को दर्शाती है। यह वाचा तपस्या या वाणी नियंत्रण का संदेश भी देती है। उनकी छोटी-छोटी आंखें उनके सूक्ष्मदर्शी होने के गुण को प्रदर्शित करती है। वे इस बात की भी प्रतीक हैं कि समस्याओं के प्रति सूक्ष्मदृष्टि से चिंतन करने वाला वंदनीय होता है। एकदंत गणेश जी का बायां दांत खंडित है, जो यह दर्शाता है कि वे राग-द्वेष से परे हैं, क्योंकि हाथी के दो दांत राग-द्वेष के प्रतीक माने गए हैं। उनकी चार भुजाएं अथक श्रम की परिचायक हैं।

विशालकाय गणेश जी का वाहन (मूषक) चूहा माना गया है। यह छोटे प्राणियों के महत्व को परिलक्षित करता है। यह इस तथ्य को प्रदर्शित करता है कि तुच्छ जीवों के प्रति भी स्नेह का भाव रखा जाना चाहिए।

श्री गणेश का शाब्दिक अर्थ है जो समस्त जीव जाति के ईश हों। ऋग्वेद में कहा गया है कि गण का अर्थ समूह वाचक होता है। ईश का अर्थ स्वामी होता है। अर्थात‍् जो समूह का स्वामी होता है उसे गणेश कहते हैं। वे शिव जी के गणों के अधिपति हैं। इसी कारण उन्हें गणपति भी कहा गया है। जगदगुरु शंकराचार्य ने अपने भाष्य में गणेश जी को ज्ञान और मोक्ष का अधिपति बताया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार देव, मानव और राक्षस तीन गण होते हैं और इन सबके अधिष्ठाता श्री गणेश जी हैं।

श्री गणेश जी अनेक पौराणिक आख्यानों, किंवदंतियों और लोक कथाओं के नायक हैं। इनमें उनकी मातृभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा और बुद्धिचातुर्य का बखान है। वे शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के परिचायक हैं। गणेश जी, लक्ष्मी जी व सरस्वती जी के साथ पूजे जाते हैं। उन्होंने दोनों को आदर्श रूप में समन्वित कर रखा है। अपने बुद्धि चातुर्य के कारण वे प्रथम पूज्य हुए और ऋद्धि-सिद्धि के कारण संपत्ति के अधिष्ठाता भी हुए। इस प्रकार विद्या, बुद्धि और सम्पत्ति के एक साथ दाता श्री गणेश जी माने जाते हैं। ऐसा अद्भुत समन्वय श्री गणेश जी में ही दृष्टिगोचर होता है।

श्री गणेश जी की पूजन के लिए उनकी औपचारिक प्रतिमा का होना भी आवश्यक नहीं समझा गया है। कई अनुष्ठानों में खड़ी सुपारी को ही गणेश जी का प्रतीक मानकर पूजा की जाती है। लकड़ी, पत्थर यहां तक कि आटे के भी गणेश जी बनाए जाते हैं और उन्हें पूजा जाता है।

कई मांगलिक कार्यों में मंगल स्वरूप श्री गणेश जी का स्वस्तिक चिन्ह बनाकर उसके आसपास दो-दो खड़ी रेखाएं बनाई जाती हैं। स्वस्तिक चिन्ह श्री गणपति का स्वरूप हैं और दो-दो खड़ी रेखाएं उनकी पत्नी ऋद्धि-सिद्धि एवं पुत्र स्वरूप क्षेम व लाभ की प्रतीक मानी गई हैं। महिलाएं कच्चे मकान में लीपने के पश्चात सर्वप्रथम श्री गणेश रूपी स्वस्तिक का ही निर्माण करती हैं।

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