दीपदान केवल दीपावली का हिस्सा नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आस्था और साझेदारी की सुंदर परंपरा है। यह रिवाज अंधकार को मिटाकर प्रकाश फैलाने का संदेश देता है। परिवार और समुदाय के बीच प्रेम, सद्भाव और सामाजिक जुड़ाव को मजबूत करने वाला यह उत्सव हमें एक-दूसरे के साथ खुशियां और उजाला बांटने की सीख देता है।
आध्यात्मिक और परम्परागत मोर्चे पर भारतीय समाज में आस्था से जुड़ा हर भाव साझेपन से जुड़ा है। हमारे यहां एक-दूसरे के संग दुःख ही नहीं, सुख साझा करने की भी रीत रही है। पर्व-त्योहारों पर अपने परिवार ही नहीं, परिवेश को लेकर सोचने का भाव भी रहा है। दीपदान का रिवाज उजास बांटने की इस परम्परा का प्रतीक है। यह भाव ही कितना सुंदर है कि अपने आंगन को प्रकाशित करते हुए अपने आस-पास की किसी देहरी पर भी अंधेरा अपना ठिकाना न बना सके। आस्था का कितना पावन रूप कि स्वयं ईश्वर द्वार या मंदिर में भी दीया जलाया जाए, प्राणवायु देने वाले वृक्षों के तले उजाला बिखेरता दीपक सजा दिया जाए, जीवनदायिनी नदियों के घाट रोशन हों। दीपदान की रीत अंधकार पर प्रकाश की विजय के इस उत्सव को आस्था और सरोकारी सोच से सही अर्थों में जोड़ देती है।
स्त्री और उजास की परम्परा
दीपावली के त्योहार पर मां लक्ष्मी और ज्ञान की देवी सरस्वती के पूजन का विधान है, जो स्त्री के संवेदनशील हृदय में भरे विवेक और गृहलक्ष्मी के रूप में परिवार को सहेजने-संभालने के गुणों को प्रतिबिंबित करता है। ऐसे गुण समाज में मानवीय उजास भरने वाले हैं। आमतौर पर दीपदान की रीत भी स्त्रियां ही निभाती हैं। इस रिवाज का संदेश ही यह है कि किसी भी देहरी पर अंधियारे का वास न हो। इस प्यारी रीत को निभाती महिलाएं अपने आस-पड़ोस के घरों की देहरी पर भी दीप प्रकाशित करती हैं। दीपदान का रिवाज एक परिवार से दूसरे परिवार में चलता है, यानी यह उजियारा बांटने की परम्परा है और स्त्रियां इसकी वाहक हैं। पड़ोस के परिवार की देहरी, मंदिर का प्रांगण और झिलमिल दीपों से सजे चौखट-चौबारे सामाजिक जुड़ाव की आशाओं के उजलेपन को बल देते हैं। यही वजह है कि टिमटिमाते दीयों के बीच किसी की मुस्कुराहटें फीकी न पड़ें, इसका ख़याल रखने वाली स्त्रियां सद्भाव और अपनेपन के प्रकाश को पोसती सी लगती हैं।
दीपदान का महत्व
असल में कार्तिक का पूरा महीना ही दीपदान के लिए विशेष माना जाता है। बहुत-से व्रत, उत्सव और अनुष्ठान लिए इस महीने में दीपदान करने का रिवाज है। इस महीने में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा का विशेष विधान है। इसी कारण इन दिनों भगवान विष्णु के साथ ही तुलसी की भी पूजा की जाती है। कार्तिक में तुलसी चौरे पर नियमित दीप जलाया जाता है। पीपल के वृक्ष के नीचे दीया रखा जाता है। किसी न किसी रूप में अपनी और परिवार की सौभाग्य एवं समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हुए प्रकृति या परिवेश को रोशन किया जाता है। उजास के दान की यह रीत सही मायनों में हमारी उत्सवधर्मिता को मानवीय सोच से जोड़ती है। यह अंधेरे से लड़ने का एक साझा प्रयास है। वस्तुतः, दीपदान का अर्थ ही ‘दीपक का दान करना’ है, यानी दीया जलाकर उसे किसी उपयुक्त स्थान पर रखना। यह रीत केवल घर में नहीं निभाई जाती; घर से बाहर भी कई स्थानों पर सामुदायिक सुख-शांति और समृद्धि के लिए दीपदान किया जाता है। नदी, वृक्ष या पूजा स्थल पर लोगों का साथ मिलकर दीपदान करना साझी भावना का प्रतीक है। यह सामाजिक और मानवीय मूल्यों को बल देने वाला उज्ज्वल भाव है। दीपक की उजास के साथ सदाचार और प्रेम बांटने का उत्सव है। दिवाली पर प्रकाश की इस परम्परा के निर्वहन का केवल आध्यात्मिक पक्ष नहीं है, यह सहज रूप से सकारात्मक ऊर्जा संचार करने वाली रीत है। आपसी संवाद को बल देने वाली परम्परा है, जो पूरे परिवेश को जगमगाने के मानवीय जज़्बात लिए है।
आशा और ज्ञान का उजास
दीपक अंधकार को दूर कर प्रकाश बिखेरता है। वहीं दीपावली का अर्थ ‘दीपों की पंक्ति’ होता है, यानी यह पर्व मूलतः आलोक के विस्तार से जुड़ा है। यह आभा कहीं न कहीं खुशियां साझा करने से भी जुड़ी है—समाज में कोई अकेला न रहे, कोई कोना अंधियारा न रहे। दीपदान के माध्यम से यह श्रृंखला बनती जाती है। समग्र समाज में ये उल्लासित और उज्ज्वल भाव एक पंक्ति के समान जुड़ते जाते हैं। दीया इसी जुड़ाव का प्रतीक बनता है। मिट्टी का नन्हा सा दीपक न केवल भौतिक रूप से उजाला फैलाता है, बल्कि ज्ञान, आशा और सकारात्मकता की उजास भी फैलाता है। यही वजह है कि दीपदान से पुण्य फल की प्राप्ति का भाव ही नहीं, अमूर्त विचारों को सबल बनाने की सोच भी जुड़ी है। दीपदान की रीत भीतर से प्रकाश की भी सूचक है—अज्ञानता और निराशा पर विजय प्राप्त कर उज्ज्वल भविष्य बनाने का प्रतीक। दीया हमेशा साझेपन और जुड़ाव की सीख ही देता है। हमारे पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को भी आज ऐसे ही जुड़ाव की ज़रूरत है। एक-दूजे को यह उजास देने की आवश्यकता है। अपनेपन से आलोकित हमारा मन और जीवन आज न केवल सामाजिक ताने-बाने को, बल्कि पूरी मनुष्यता को सहेजने वाला साबित हो सकता है। यही वजह है कि दीपदान की परम्परा धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं पर शुभता के भाव से जुड़ी प्रतीत होती है।