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आशीर्वाद का मर्म

एकदा

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एक बार एक राजा के दरबार में राजकवि ने प्रवेश किया। राजा ने उन्हें प्रणाम करते हुए उनका स्वागत किया। राजकवि ने राजा को आशीर्वाद देते हुए उनसे कहा, ‘आपके शत्रु चिरंजीव हो।’ यह आशीर्वाद सुनकर राजा राजकवि से नाराज हो गए। राजकवि को इस बात का भान हो गया कि राजा उनकी बात सुनकर नाराज हो गए हैं। उन्होंने तुरंत कहा, ‘महाराज! मैंने आपको आशीर्वाद दिया पर आपने लिया नहीं।’ राजा ने कहा, ‘कैसे लूं मैं आपका आशीर्वाद आप मेरे शत्रुओं को मंगलकामना दे रहे हैं।’ इस पर राजकवि ने समझाया, ‘राजन! मैंने आपका हित ही चाहा है। आपके शत्रु जीवित रहेंगे तो आप में बल, बुद्धि, पराक्रम और सावधानी बनी रहेगी। सावधानी तभी बनी रह सकती है, जब शत्रु का भय हो। उसके न रहने पर हम निश्चिंत हो जाते हैं। हे राजन! मैंने आपके शत्रुओं की नहीं, आपकी ही मंगल कामना की है।’ राजकवि के आशीर्वाद का मर्म जानकर राजा संतुष्ट हो गए।

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