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आत्म-संयम और भक्ति के जरिए आत्मिक उन्नति का दिव्य मार्ग

चातुर्मास
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चातुर्मास हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण और पवित्र समय होता है, जो आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी से शुरू होकर कार्तिक मास की एकादशी तक रहता है। इस अवधि में भगवान विष्णु योगनिद्रा में जाते हैं और भक्तों को पुण्य, साधना और आत्मिक उन्नति के लिए उपवास, ब्रह्मचर्य, और भक्ति का पालन करने का अवसर मिलता है। यह समय आत्म-संयम, तपस्या, और श्रद्धा का होता है, जो जीवन को दिव्यता की ओर अग्रसर करता है।

डॉ. बृजेश सती

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आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से यह उपवास प्रारंभ होता है। भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रत करने से एक हजार अश्वमेघ यज्ञ के फल के बराबर पुण्य मिलता है। इस दौरान ब्रह्मचर्य का पालन, त्याग, उपवास, मौन, जप, ध्यान, स्नान, दान, पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं। इस व्रत को सबसे उत्तम व्रत माना गया है। धर्मशास्त्रों में ब्रह्मचर्य से बढ़कर कोई अन्य धर्म का साधन नहीं माना गया है। खासतौर से संन्यासियों और संत-महात्माओं के लिए यह समय तप, ध्यान और साधना के लिए सबसे श्रेष्ठ माना गया है। संन्यासियों के लिए सीमा उल्लंघन का भेद बताया गया है। इसलिए दंडी संन्यासी एक ही स्थान पर रहकर आध्यात्मिक साधना करते हैं। संन्यासियों का चातुर्मास व्रत आषाढ़ मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होता है और भाद्रपद माह की पूर्णिमा को समाप्त होता है।

चातुर्मास में षोडशोपचार से भगवान विष्णु की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। अहिंसा का पालन करना भी किसी तप से कम नहीं है। किंतु इस पवित्र मास में भेदभाव का त्याग करके यदि मानव इसका नियमानुसार पालन करे, तो इससे बड़ा कोई तप नहीं है। इसके अलावा पंचायतन पूजा का भी महत्व बताया गया है। धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि यदि मनुष्य इस अवधि में प्रतिदिन केवल एक समय आहार ग्रहण करता है तो उसे द्वादशाह यज्ञ (बारह दिनों तक चलने वाला यज्ञ, जिसे प्रजापति यज्ञ भी कहा जाता है) के बराबर फल मिलता है।

चातुर्मास के दौरान यदि कोई मानव अपने प्रिय भोज्य पदार्थों का त्याग करता है, तो उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में ऐसा भी कहा गया है कि गृहस्थों को गृहस्थ आश्रम का परित्याग कर ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करना चाहिए।

स्कंद पुराण के ब्रह्मखंड चातुर्मास माहात्म्य में वर्णन है कि चातुर्मास का व्रत करने वाला व्यक्ति श्रीहरि के स्वरूप को प्राप्त करता है। महामुने, सभी वर्णों, आश्रमों और जातियों के लिए भगवान विष्णु की भक्ति सबसे उत्तम मानी गई है।

चातुर्मास और अवधि

देवशयनी एकादशी सबसे विशेष है, क्योंकि इस दिन संपूर्ण सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु योगनिद्रा में जाते हैं। आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवशयनी एकादशी) से कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष एकादशी (देव उठनी एकादशी) तक की अवधि चातुर्मास कहलाती है। इस दौरान भगवान विष्णु जल में शयन करते हैं।

शिव के पास सृष्टि-संचालन

जब भगवान नारायण सृष्टि संचालन से कुछ समय के लिए विराम लेते हैं, तब मान्यता है कि भगवान शिव इस कालखंड में सृष्टि के संचालन का दायित्व संभालते हैं। इसलिए इस अवधि में जो व्यक्ति भगवान शिव की आराधना करता है, उसे श्रीहरि और हर दोनों की पूजा का फल प्राप्त होता है।

किन वस्तुओं का त्याग

कहते हैं कि कुछ पाने के लिए थोड़ा-बहुत खोना भी पड़ता है। इसलिए अभीष्ट की प्राप्ति के लिए चतुर्मास की अवधि में यदि मनुष्य अपने प्रिय भोज्य पदार्थों का त्याग करता है, तो वह वस्तुएं उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती हैं। चतुर्मास में गुड़ का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता की प्राप्ति होती है। ताम्बूल का त्याग करने से मनुष्य भोग सामग्री से सम्पन्न होता है और उसका कंठ सुरीला होता है। दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक मिलता है।

इस अवधि में सभी मांगलिक कार्यों पर रोक लग जाती है। शुभ कार्य जैसे शादी, सगाई, नामकरण, मुंडन, गृह प्रवेश, नए घर का निर्माण, नया घर खरीदना आदि कार्य नहीं किए जाते हैं।

संन्यासियों के लिए नियम, बंधन

संन्यासी एक ही स्थान पर रहते हैं। यात्रा पर प्रतिबंध रहता है। अधिकांश समय धार्मिक गतिविधियों में व्यतीत करते हैं। इस दौरान कथा, प्रवचन, सत्संग में संलग्न रहते हैं। इसके अलावा ब्रह्मचर्य का पालन, जमीन पर सोना, शास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन जैसे नियमों का पालन करना होता है।

वैसे तो सामान्य बोलचाल में चातुर्मास यानी चार महीने, मगर संन्यासियों का चातुर्मास आषाढ़ मास की पूर्णिमा से भाद्रपद माह की पूर्णिमा तक, दो माह का होता है। आंग्ल महीनों के अनुसार इस बार यह 10 जुलाई से 7 सितम्बर तक होगा।

नदियों और संगम में स्नान का फल

चातुर्मास में नदियों और संगम में स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। स्कंद पुराण के ब्रह्मखंड के चातुर्मास माहात्म्य में ब्रह्माजी, नारद को बताते हैं कि जो मनुष्य चातुर्मास में नदी और संगम में स्नान करता है, उसे विशेष प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं और उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। पुष्कर प्रयाग या किसी अन्य महत्वपूर्ण तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को पुण्य मिलता है। नर्मदा, भास्कर, सरस्वती के संगम में चातुर्मास में एक बार अवश्य स्नान करना चाहिए। गोदावरी नदी में सूर्योदय के समय चौमासा में 15 दिन तक स्नान का विशेष महत्व बताया गया है।

इस दौरान भगवान श्रीहरि जल में शयन करते हैं। अतः नदियों और संगम आदि स्थानों में स्नान करने से मनुष्य को अधिक फल प्राप्त होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

शालिग्राम शिला की पूजा

स्कंद पुराण में शालिग्राम शिला के चातुर्मास में पूजन को श्रेष्ठ बताया गया है। वर्णन है कि जो मनुष्य शालिग्राम में स्थित भगवान विष्णु का पूजन करते हैं, उन्हें सभी पापों से मुक्ति मिलती है। इसके अलावा भगवान विष्णु के शयन काल के दौरान शालिग्राम शिला को पंचामृत से स्नान करने से मनुष्य के सभी प्रकार के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।

इसके अलावा चातुर्मास के दौरान शालिग्राम शिला पर तुलसीदल चढ़ाने से सभी मनोकामनाओं की प्राप्ति होती है। क्योंकि शालिग्राम शिला साक्षात विष्णु स्वरूप हैं और तुलसी देवी लक्ष्मी हैं। इसलिए चातुर्मास में शालिग्राम शिला पूजन किया जाता है। इस दौरान जहां भी शालिग्राम शिला की पूजा की जाती है, उस क्षेत्र में कोई अशुभ घटना नहीं होती है।

यह समय नियम, संयम, एकाग्रता, चिंतन, मनन सब कुछ के लिए अनुकूल होता है। चातुर्मास के दौरान द्वादशाक्षर और राम नाम का जप करने से मनुष्य को संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है और दस गुना पुण्य की प्राप्ति होती है।

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