मोहन मैत्रेय
भारतीय धर्म-साधना तथा समाज व्यवस्था को जिन मध्ययुगीन विभूतियों ने विशेष रूप से प्रभावित किया, उनमें श्री गुरु नानक देव का शीर्ष स्थान है। वह संत साहित्य के महान कवि तथा सिख धर्म के संस्थापक थे। वह मध्ययुग के मौलिक चिंतक, क्रांतिकारी सुधारक, युग एवं राष्ट्र निर्माता थे। अापने उस धर्म की स्थापना की, जिसके बाह्य तथा आंतरिक पक्ष अध्यात्म तत्व चिंतन और परमात्म भक्ति की सुदृढ़ नींव पर निर्मित हैं।
मुस्लिम शासकों द्वारा अन्य धार्मिक विधि-विधान पालन करने वालों का जिस प्रकार उत्पीड़न हो रहा था, उस पर गुरु जी की आत्मा कराह उठी-
राजे सीह मुकदम कुते॥ जाइ जगाइन्हि बैठे सुते॥ चाकर नहदा पाइन्हि घाउ॥ रतु पितु कुतिहो चटि जाहु॥
एक अन्य उल्लेख भी कम पीड़ाजनक नहीं-
कलि काती राजे कासाई धरमु पंख करि उडरिआ॥ कूड़ु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चड़िआ॥ हउ भालि विकुंनी होई॥ आधेरै राहु न कोई॥ विचि हउमै करि दुखु रोई॥ कहु नानक किनि बिधि गति होई॥
मुस्लिम शासक धर्मांधता का शिकार थे और हिन्दू जनता उनके अत्याचार से त्रस्त थी। गुरु जी के लिए इस विकट स्थिति में दो ही विकल्प थे- शासक वर्ग को खुले संघर्ष की चेतावनी अथवा धार्मिक सुधार का मार्ग अपनाना। आम जनता में खुले संघर्ष का दम नहीं था। धार्मिक सुधार ही एकमात्र विकल्प था। कालान्तर में श्री गुरु गोबिंद सिंह ने संघर्ष का दामन थामा। भारत में राजनीति और समाज का मेरुदंड धर्म ही रहा है, परन्तु उस समय देश में हिन्दू एवं मुस्लिम धर्म की मान्यताओं को भूल कर सांप्रदायिकता के कीचड़ में धंसे थे। गुरु जी ने सुधार के सिद्धांतों पर मनन किया और व्यापक आधार पर धर्म की नींव डाली। अापने निराकार की उपासना का उपदेश दिया, मूर्ति पूजा को अनावश्यक माना और वर्ण व्यवस्था को भी स्वीकार नहीं किया। कहा जाता है कि गुरु जी सुलतानपुर निवास काल में प्रात: बेई में स्नान को उतरे तो उन्हें एक विचित्र प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ। बाहर निकले तो यह शब्द उच्चरित हुए – न को हिन्दू न मुसलमान- सभी परमात्मा के पुत्र होने के कारण समान हैं।
गुरु नानक देव द्वारा स्थापित सिख धर्म सैद्धांतिक मात्र नहीं था, यह आरंभ से ही व्यावहारिक धर्म था। इसका पालन संसार में रहते हुए ही किया जा सकता था। इस धर्म में चरित्रबल को विशेष महत्व प्राप्त था। परशुराम चतुर्वेदी का उल्लेख है- इस धर्म के अनुसार आदर्श व्यक्ति वही हो सकता है जिसमें ब्राह्मणों की अाध्यात्मिकता, क्षत्रियों की आत्मरक्षा भावना, वैश्यों की व्यवहार कुशलता एवं शूद्रों की लोक सेवा एक साथ वर्तमान हो। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति आत्म-चिंतन से लेकर कठिन उलझनों का एक समान निर्वाह कर सकता है।
गुरु नानक की इस धर्म को देन इसके दर्शन से ज्यादा इसके मनोवैज्ञानिक पक्ष को है। इसमें सामाजिक कुरीतियों तथा धार्मिक पाखंडों और बाह्यचारों का खंडन है। इस धर्म की एक अन्य विशेषता इसके भक्तिमार्ग का दोष रहित होना है। आपने परमात्मा के रूप का आकार सीमा से परे माना है। इष्ट देव को अकाल मूर्ति, अजूनी (अयोनि – अजन्मा) तथा सैभं (स्वयंभू) के रूप में अपनाया है। मूलमंत्र में परमात्मा का स्वरूप इस प्रकार दर्शाया गया है- इक ओंकार सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैर अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि॥
सिख धर्म में नाम स्मरण पर विशेष बल दिया गया है। गुरु नानक के संदेश का मुख्य स्वर परमात्मा तथा मानव दोनों से स्नेह करना है। गुरु जी द्वारा रचित पद गुरु ग्रंथ साहिब में संगृहीत है। आपकी प्रसिद्ध रचना जपुजी साहिब है, जिसमें 38 छंद और अन्त में एक श्लोक है। गुरु जी के अनुसार धर्म अन्तर की एक ज्योति है, अनुभूति है जो सभी मानवों को समीप लाती है और स्वयं को भी ज्योतिर्मय करती है।