दीप चन्द भारद्वाज
अध्यात्म को हमारे दार्शनिक ग्रंथों एवं वेदों में परिभाषित करते हुए कहा गया है कि आत्मा और परमात्मा से संबंधित शाश्वत ज्ञान का अनुगमन करना ही अध्यात्म विद्या है। आध्यात्मिक होने का मतलब है- भौतिकता से परे जीवन को अनुभव करना। कई बार हम धर्म और अध्यात्म को एक ही समझने लगते हैं, परंतु अध्यात्म, धर्म से अलग है। ईश्वरीय आनंद की अनुभूति करने का मार्ग ही अध्यात्म है। अध्यात्म व्यक्ति को अपने स्वयं के अस्तित्व के साथ जोड़ने और उसका सूक्ष्म विवेचन करने के लिए समर्थ बनाता है। वास्तव में आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह खुद अपने आनंद का स्रोत है।
आध्यात्मिकता का संबंध हमारे आंतरिक जीवन से है। हमारा अधिकतर ज्ञान भौतिक है और उसी से हम परम आनंद की प्राप्ति की आकांक्षा करते हैं, जो कि पूर्णतया व्यर्थ है। आज के वातावरण में मनुष्य भौतिकवाद के अनुसरण में व्यस्त है। भौतिकवाद केवल बाहरी आवरण को समृद्ध बना सकता है। इससे हम अपने भौतिक शरीर की जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। भौतिकवाद हमारे बाहरी शरीर को सुंदर बना सकता है, परंतु इससे आंतरिक आनंद और उल्लास की अपेक्षा करना हमारी अज्ञानता है। भौतिकवाद एवं विज्ञान हमें संपूर्ण विश्व की बाहरी यात्रा करवा सकता है, परंतु आंतरिक यात्रा तो केवल अध्यात्म के मार्ग पर चलकर ही हो सकती है। वह सभी गतिविधियां, जो मनुष्य को परिष्कृत एवं निर्मल बनाती हैं, आनंद से परिपूर्ण करती हैं, वह सब अध्यात्म से प्राप्त होती हैं। आध्यात्मिक जीवन एक ऐसी नाव है जो ईश्वरीय ज्ञान एवं आनंद से भरी हुई है। यह नाव जीवन के उत्थान एवं पतन रूपी झंझावातों में भी चलती रहती है। अध्यात्म मनुष्य को आंतरिक रूप से सशक्त बनाता है। लाभ हानि, मान-अपमान, सुख-दुख, उत्थान-पतन सभी परिस्थितियों में आध्यात्मिक मार्ग का पथिक अविचल रूप से गतिमान रहता है। सांसारिक रुकावटें उसकी इस गति को बाधित नहीं कर सकती। सभी प्राणियों में उसी परम सत्ता के अंश को अनुभव करने की प्रेरणा अध्यात्म ही प्रदान करता है।
विश्व बंधुत्व का मार्ग
अध्यात्म विश्व बंधुत्व का मार्ग है जहां मनुष्य की ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, आपसी भेदभाव समाप्त हो जाते हैं। प्रत्येक प्राणी में उसी दिव्य तत्व की अनुभूति होने लगती है। अध्यात्म की इसी समदर्शी तथा समत्व की भावना को योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को गीता के छठे अध्याय में वर्णन करते हुए कहा है कि जो मनुष्य सभी प्राणियों में स्थित आत्मा को अपने जैसा देखता है, ऐसा समदर्शी आध्यात्मिक मनुष्य सांसारिक वातावरण से अलग होकर सभी प्राणियों को ईश्वरमय समझने लगता है। ऐसी अवस्था में वह किसी का अहित करने का विचार अपने मन में नहीं ला सकता। संपूर्ण विश्व के प्राणी उसके लिए बंधु बन जाते हैं। अध्यात्म मनुष्य को इसी समत्व की भावना की ओर ले जाता है।
भीतर आनंद, बाहर दौड़
हमारी सारी दौड़, सारे प्रयास बाहर के भौतिक जीवन तक ही सीमित हैं, परंतु अध्यात्म अपने भीतर जाने का मार्ग खोलता है। हमारा अधिकतर समय दूसरों के स्वभाव, व्यवहार, व्यक्तिगत जीवन को जानने में व्यतीत हो जाता है। अमूल्य धरोहर इस मानव जीवन को हम व्यर्थ की दौड़ धूप में, आपसी मनमुटाव तथा दूसरों की कमियों को जानने में व्यतीत कर देते हैं। अध्यात्म हमें सचेत करते हुए कहता है कि सबसे पहले स्वयं को जानो। सर्वप्रथम अपने व्यवहार, अपने अंतःकरण का अवलोकन करो। बाहरी संसार के व्यक्तियों की आलोचना, प्रशंसा से हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला। अपने भीतर के अवलोकन से ही हम शाश्वत आनंद एवं शांति के भंडार को प्राप्त कर सकते हैं। हमारे ऋषियों ने भी अपनी साधना तथा अनुभव के आधार पर कहा है कि मनुष्य की आत्मिक, मानसिक, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का मार्ग अध्यात्म से ही खुलता है। संसार के दुखों, चिंताओं में संतप्त मनुष्य को आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करके शाश्वत शांति की प्राप्ति हो सकती है। यजुर्वेद में कहा गया है कि प्रकृति अर्थात भौतिक पदार्थों के स्वर्णमय आवरण ने ईश्वर की सत्ता को ढका हुआ है। इसी भौतिकवाद की दलदल में फंस कर मनुष्य उस ईश्वर के आनंद से सदा वंचित रहता है। संसार के पदार्थों में अत्यधिक संलिप्तता तथा अत्यधिक उपभोग की प्रवृत्ति हमें अध्यात्म के मार्ग से विचलित कर देती है। आध्यात्मिकता से ही मनुष्य की सर्वांगीण तथा संपूर्ण विश्व के कल्याण की भावना का उदय होता है।
स्वयं के अस्तित्व को समझें
आज मनुष्य भौतिकवाद के माध्यम से अपनी आंतरिक समस्याओं का हल ढूंढ़ना चाहता है, जबकि यह मार्ग अशांति, तनाव, असंतोष का है। आध्यात्मिक तत्वों को अपने जीवन में आत्मसात करके ही आनंद एवं शांति की अनुभूति की जा सकती है। हमारे ऋषियों द्वारा बताए गए अध्यात्म विद्या के सूत्र ही मनुष्य के आत्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करते हैं। अध्यात्म के इन्हीं स्वर्णिम तत्वों से मानव जीवन में आनंद का संचार होता है। स्वयं के अस्तित्व को विवेकपूर्ण ढंग से अनुभव करके तथा स्वयं को आनंद के अनंत भंडार ईश्वर से जोड़कर ही जीवन को आनंदमय तथा अध्यात्ममय बनाया जा सकता है।