पांडुपुत्र युधिष्ठिर को आत्मा के बारे में ज्ञान देते हुए भीष्म पितामह कहते हैं- अविनाशी परमात्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई है। इसी पृथ्वी से संपूर्ण पार्थिव जगत की उत्पत्ति हुई है। यह परमात्मा तत्व गर्म, शीतल, कोमल, तीक्ष्ण, खट्टा, मीठा अथवा विषैला नहीं है। यह शब्द, गंध और रूप से भी रहित है। पार्थिव तत्व (प्राणी का सूक्ष्म शरीर) में त्वचा स्पर्श का, जिह्वा रस का, नासिका गंध का, कान शब्द का और नेत्र रूप का अनुभव करते हैं। ये पांचों इंद्रियां परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं कर सकतीं। जो ज्ञानी पुरुष अपने ध्यान को इन सबसे हटा कर अंतर्मुखी बना लेता है, वही अपने मूल-स्वरूप सच्चिदानंद प्रभु का दर्शन करने में सफल होता है। जैसे वायु का वेग, सूर्य की किरणें और नदियों का बहता जल आते-जाते रहते हैं, उसी प्रकार देह धारियों के शरीर भी आवागमन के प्रवाह में पड़े हुए हैं। जैसे कोई मनुष्य कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी को चीरे तो उसे न आग और न ही धुआं दिखाई देता है, परंतु उसी काठ को यत्नपूर्वक मंथन करने (रगड़ने) पर अग्नि और धुआं दोनों दिखाई देते हैं। मानव देह को काटने या फाड़ने पर आत्मा दिखाई नहीं देती, परंतु योग द्वारा मन और इंद्रियों को, बुद्धि सहित समाहित करने वाला ज्ञानी पुरुष इन सबमें परम-श्रेष्ठ आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है।
– साभार : महाभारत के जाने-अनजाने पात्र