सालासर बालाजी मंदिर राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ तहसील में स्थित एक प्रमुख हनुमान मंदिर है। यह मंदिर अपनी चमत्कारी प्रभाव और हनुमान जी के दाढ़ी और मूंछ वाले अद्वितीय रूप के लिए प्रसिद्ध है। संत मोहनदास जी की तपस्या से जुड़ी इस मंदिर की स्थापना, भक्ति और सेवा की परंपरा का जीवंत उदाहरण है। यहां की अखंड ज्योति और नारियल बांधने की परंपरा श्रद्धालुओं के विश्वास को और मजबूत करती है।
राजस्थान के चुरू ज़िले की सुजानगढ़ तहसील में स्थित सालासर बालाजी मंदिर भारतवर्ष के प्रमुख हनुमान मंदिरों में से एक है। यह स्थान न केवल अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा और चमत्कारी प्रभाव के लिए जाना जाता है, बल्कि इसलिए भी विशेष है कि यहां हनुमान जी दाढ़ी और मूंछ वाले रूप में विराजित हैं, जो देश में अपनी तरह का अकेला स्वरूप है।
भक्ति में लीन
इस मंदिर की स्थापना की कथा संत मोहनदास जी महाराज से जुड़ी है, जिन्हें आज भी सालासर धाम का जीवंत इतिहास माना जाता है। मोहनदास जी का जन्म एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही वे हनुमान भक्ति में लीन रहते थे और सांसारिक जीवन से दूर रहते हुए भजन-साधना में रमते गए।
एक बार मोहनदास जी की बहन कान्ही बाई, अपने बेटे उदयराम के पालन-पोषण हेतु सालासर लौटीं तो भाई मोहन को साथ ले गईं। सालासर का शांत वातावरण और धार्मिक परिवेश मोहनदास जी की तपस्या के लिए उपयुक्त सिद्ध हुआ। एक दिन खेत में काम करते समय मोहनदास जी के हाथ से बार-बार गंडासी छूटने लगी। जब उदयराम ने अपने मामा से कारण पूछा, तो मोहन बोले, ‘कोई अलौकिक शक्ति मेरे हाथ से गंडासी फेंक रही है और कह रही है कि तू सांसारिक जीवन के चक्कर में मत फंस।’
परिजनों ने मोहनदास को सांसारिक जीवन में बांधने का प्रयास किया और उनका विवाह तय कर दिया। लेकिन एक अनहोनी घटना के पश्चात मोहन बोले कि ‘इस संसार में जो स्त्री बड़ी है वह मां है, जो स्त्री हम उम्र है वह बहन है और जो छोटी है वह बेटी है फिर विवाह किससे करूं?’
तत्पश्चात मोहन संन्यास ग्रहण कर ‘मोहन’ से ‘महात्मा’ बन गए| इस घटना के बाद सब जान गए कि मोहनदास अब एक सिद्ध महात्मा बन चुके हैं।
हनुमान जी ने दिए दर्शन
मोहनदास जी की हनुमान भक्ति इतनी गहरी थी कि एक दिन हनुमान जी स्वयं साधु वेष में उनके सामने प्रकट हुए। जब मोहनदास जी उनके पीछे दौड़े, तो प्रभु जंगल में जाकर रुके और बोले, ‘बता, क्या चाहिए तुझे?’ मोहनदास जी ने भावविभोर होकर कहा, ‘आपके चरणों में समर्पण ही मेरी सबसे बड़ी प्राप्ति है।’ प्रभु ने कहा, ‘मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूं, वर मांग।’ तब महात्मा ने प्रार्थना की, ‘आप मेरे साथ चलें और यहीं रहें।’ प्रभु ने शर्त रखी कि ‘मैं तभी साथ चलूंगा जब खांडयुक्त खीर का भोग और अछूती शैया मिले।’ मोहनदास जी ने यह शर्तें सहर्ष स्वीकार कीं।
हनुमान जी ने वचन दिया कि वे मूर्ति रूप में सालासर में उनके साथ रहेंगे। मोहनदास जी प्रतीक्षा करने लगे कि कब उनका आराध्य मूर्ति रूप में प्रकट होंगे।
मूर्ति का प्राकट्य
कुछ समय पश्चात, आसोटा गांव के खेत में एक किसान को हल चलाते समय भूमि में कुछ अटकने का आभास हुआ। जब खुदाई की गई तो हनुमान जी की एक अद्भुत मूर्ति निकली, जिसमें प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण उनके कंधों पर विराजमान थे। किसान की पत्नी ने मूर्ति को खेजड़ी के नीचे रखकर रोटी का भोग लगाया। यह सूचना गांव के ठाकुर को दी गई। ठाकुर ने मूर्ति को सम्मानपूर्वक घर लाकर मोहनदास जी के कहे अनुसार सालासर पहुंचाया।
मोहनदास जी ने निर्देश दिया कि मूर्ति जहां रथ के बैल रुक जाएं, वहीं स्थापित की जाए। बैल एक रेत के टीले पर रुके और वहीं विक्रम संवत 1811 (1754 ई.) में श्रावण शुक्ल नवमी के दिन बालाजी महाराज की स्थापना की गई।
सेवा परंपरा
विक्रम संवत 1815 (1758 ई.) में मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ हुआ, जिसे नूर मोहम्मद और दाऊ नामक मुस्लिम कारीगरों ने पूर्ण किया। यह धार्मिक सहिष्णुता और भाईचारे का अनुपम उदाहरण बना।
महात्मा मोहनदास जी ने अपने भानजे उदयराम को चोगा पहनाकर मंदिर की सेवा सौंपी और उसी चोगे को ‘गद्दी’ का प्रतीक माना गया। यहीं से सालासर मंदिर की सेवा परंपरा का आरंभ हुआ, जो आज भी उसी श्रद्धा से निभाई जा रही है।
अखंड ज्योति और नारियल
मंदिर प्रांगण में विक्रम संवत 1811 से प्रज्वलित अखंड ज्योति आज भी अनवरत जल रही है। यहां मनौती स्वरूप नारियल बांधने की परंपरा है। भक्तगण अपनी मनोकामनाएं पूरी होने की आशा में नारियल बांधते हैं। मान्यता है कि प्रभु की कृपा से हर मनोकामना पूर्ण होती है। यह नारियल किसी अन्य प्रयोजन में प्रयोग नहीं होते।