एक बार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने साथियों के साथ बंगाल के एक दूरदराज़ गांव में कला और संस्कृति यात्रा पर निकले हुए थे। उसी दौरान उनके दल का एक सदस्य पेट की गंभीर व्याधि से पीड़ित हो गया। तभी दल के ही एक अनुभवी सदस्य ने धैर्य रखने को कहा और कुछ समय बाद शांतिनिकेतन लौटने पर वह एक विशेष पौधे से रस निकाल लाए। उन्होंने वह रस पीड़ित को पिलाया। रोगी की स्थिति में सुधार होने लगा। रात्रि विश्राम के समय गुरुदेव ने उस अनुभवी सदस्य से उस औषधीय पौधे के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। अगली सुबह वे उन्हें सैर पर ले गए और एक पेड़ की ओर इशारा करके बोले, ‘यही है वह पेड़।’ गुरुदेव ने पहचानते हुए आश्चर्य से कहा, ‘अरे! यह तो सप्तवर्णी है! मेरे पूज्य पिताजी ने यहां हर जगह इन पेड़ों के लिए माली लगाए थे।’ उन्होंने गुरुदेव को सप्तवर्णी के कई औषधीय गुणों के बारे में बताया। इस घटना से प्रभावित होकर गुरुदेव ने तय किया कि इस पेड़ को सम्मान देने की परंपरा शुरू की जाए। तब से आज तक शांतिनिकेतन में दीक्षांत समारोह के अवसर पर सप्तवर्णी (बांग्ला में ‘छातिम’) की शाखा भेंट करने की परंपरा चली आ रही है — यह श्रद्धा, ज्ञान और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक बन गई है।
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