संत शिवानन्द अपने आश्रम में बैठे धीरज नाम के एक सज्जन से धर्मचर्चा में तल्लीन थे। तभी वहां एक अन्य सज्जन आए और संत के पास बैठ गए। आगंतुक सज्जन धीरज के परिचित थे और दोनों में कोई पुराना झगड़ा भी चल रहा था। धीरे-धीरे वह धीरज को कटु वचन सुनाने लगे। संत के सान्निध्य में बैठा धीरज संत के लिहाज में चुपचाप बैठा सुनता रहा। संत भी बिना कुछ बोले आगन्तुक सज्जन का प्रलाप सुनते हुए धीरज के धीरज की मन ही मन प्रशंसा भी कर रहे थे। धीरज धीरे-धीरे अपना आपा खोने लगा और ईंट का जवाब पत्थर से देने लगा। संत वहां से उठे और भीतरी कक्ष में चले गए। कुछ देर बाद आगंतुक भी चला गया तो धीरज उठकर शिवानन्द से पूछने लगा, ‘बाबा, जब तक मेरा प्रतिद्वंद्वी मुझे अपशब्द कहता रहा, आप वहां बैठे रहे और जब मैंने उसकी बातों का जवाब देना शुरू किया तो आप उठकर अंदर चले आए, ऐसा क्यों?’ संत ने उसे समझाते हुए जवाब दिया, ‘जब तक तुम शांत थे, तब तक तुममें देवताओं का वास था। मगर, जब तुमने उसकी कटुता का जवाब कटुता से देना प्रारंभ किया तो मैं समझ गया कि तुम्हारे भीतर का क्रोध रूपी दानव जागने लगा है। शैतान के सान्निध्य में बैठने की अपेक्षा मैंने एकांत में आना उचित समझा। प्रस्तुति : मुकेश कुमार जैन