कुरुक्षेत्र की धरती पर दो विशाल सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। एक रथ पर बैठे अर्जुन के हाथ कांप रहे थे। अर्जुन ने धीमे स्वर में कहा, ‘हे केशव! मेरे अपने ही सामने खड़े हैं। ये भीष्म पितामह हैं, ये द्रोणाचार्य —जिन्होंने मुझे स्नेह दिया, शस्त्र विद्या सिखाई। मैं इन पर बाण कैसे चला सकता हूं?’ श्रीकृष्ण बोले, ‘हे पार्थ! यह तेरा मोह है। जब तू कर्तव्य से विमुख होता है, तब ज्ञान और विवेक धुंधले पड़ जाते हैं।’ अर्जुन ने पूछा, ‘मगर क्या अपनों को मारना धर्म है?’ श्रीकृष्ण की आंखों में गंभीरता थी। वे बोले, ‘यह युद्ध केवल अस्त्रों का नहीं है, यह युद्ध अधर्म के विरुद्ध धर्म का है। तू जिस शरीर को देख रहा है, वह नश्वर है, पर आत्मा अजर-अमर है।’ फिर श्रीकृष्ण ने कहा, ‘तुझे कर्म करने का अधिकार है, फल की चिंता मत कर। फल तेरे वश में नहीं है।’अर्जुन चुप था। उसका हृदय भारी था, परंतु मन के भीतर एक हल्का-सा प्रकाश फूट रहा था। वह एक योद्धा था, पर आज उसे अपने धर्म का बोध हो रहा था। ‘हे माधव! अब मैं मोह से मुक्त हूं। मुझे स्मृति लौट आई है। अब मैं युद्ध करूंगा, क्योंकि यह मेरा कर्तव्य है।’ श्रीकृष्ण ने रथ आगे बढ़ा दिया। कभी-कभी जीवन हमें ऐसे मोड़ पर लाता है, जहां भावनाएं कर्तव्य से टकराती हैं। उस समय मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है —और वह मार्गदर्शन हमें भीतर के श्रीकृष्ण से ही प्राप्त होता है।
प्रस्तुति : प्रो. अनूप कुमार गक्खड़