गुजरात की राजमाता मीनाल देवी ने भगवान सोमनाथ का विधिवत अभिषेक कर स्वर्ण दान किया। इस दान के बाद उनके मन में अहंकार आ गया कि ऐसा भव्य दान किसी ने नहीं किया होगा। उसी रात उन्हें स्वप्न में भगवान सोमनाथ के दर्शन हुए। भगवान ने कहा, ‘मेरे मंदिर में आज एक गरीब महिला आई थी। उसका पुण्य तुम्हारे स्वर्णदान से कई गुना अधिक है।’ प्रभु की वाणी सुनकर राजमाता चकित रह गईं और उन्होंने उस गरीब महिला को महल में बुलवाया। राजमाता ने उससे कहा, ‘मुझे अपने संचित पुण्य दे दो। इसके बदले जो भी धनराशि चाहिए, मैं देने को तैयार हूं।’ गरीब महिला ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, ‘राजमाता, मैं तो अत्यंत निर्धन हूं। मुझे तो यह भी नहीं पता कि कौन-सा पुण्य मेरे द्वारा हुआ है। ऐसे में मैं आपको क्या दे सकूंगी?’ राजमाता ने उससे पिछले दिन के कार्यों के विषय में पूछताछ की। महिला ने सरलता से बताया, ‘कल किसी ने मुझे दान में एक मुट्ठी बूंदी दी थी। उसमें से आधी बूंदी मैंने भगवान सोमेश्वर को चढ़ा दी और जब शेष आधी खाने जा रही थी, तभी एक भूखे भिखारी ने मुझसे मांग ली, तो मैंने वह भी उसे दे दी।’ यह सुनकर राजमाता की आंखें नम हो गईं। उन्हें यह समझ आ गया कि निष्काम भाव से किया गया त्याग, दिखावे से रहित ही सच्चा पुण्य होता है। भगवान भाव के भूखे होते हैं, दान की राशि के नहीं। उन्होंने स्वीकार किया कि उस गरीब महिला का निष्काम कर्म उनके स्वर्णदान से कहीं श्रेष्ठ था।
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