टॉलस्टॉय अपने जीवन के उत्तरार्ध में अत्यंत प्रसिद्ध हो चुके थे। लेकिन एक दिन उन्होंने भीतर एक गहरे शून्य को महसूस किया। उन्होंने लिखा कि हर सुबह जागने पर उनके मन में यही प्रश्न उठता था—‘मैं यह सब क्यों कर रहा हूं? जीवन का अर्थ क्या है?’ धीरे-धीरे यह प्रश्न इतना गहरा हो गया कि उन्हें जीवन ही निरर्थक लगने लगा। एक दिन वे अपने खेतों में टहल रहे थे। वहीं उन्होंने एक साधारण किसान को देखा, जो पूरी लगन और शांत भाव से हल चला रहा था। न उसके पास पुस्तकें थीं, न ज्ञान का गर्व—फिर भी उसके चेहरे पर संतोष की एक अद्भुत शांति थी। टॉलस्टॉय सोच में पड़ गए—‘मेरे पास सब कुछ है, फिर भी मैं असंतुष्ट हूं। इस किसान के पास कुछ नहीं है, फिर भी यह प्रसन्न है। ऐसा क्यों?’ उत्तर धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा। वह किसान अपने श्रम, अपने परिवार और ईश्वर में विश्वास रखता था। उसने जीवन को जटिल नहीं बनाया, बल्कि सरलता में ही उसका अर्थ खोज लिया। टॉलस्टॉय को अनुभव हुआ कि जीवन का उद्देश्य महान उपलब्धियां या बाहरी सफलता नहीं हैं, बल्कि सच्चा अर्थ साधारण कर्म, सादगी और निष्कलंक विश्वास में छिपा होता है। यह अनुभव टॉलस्टॉय के जीवन और लेखन दोनों को बदल गया। वे अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘सच्चा सुख बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि आंतरिक संतोष और निःस्वार्थ जीवन में है।’
Advertisement
Advertisement
Advertisement
×