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पुष्प का ऋषिकर्म

एकदा
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महर्षि जावालि ने पर्वत पर खिला एक ब्रह्मकमल देखा। उसकी शोभा और सुगंध से मुग्ध होकर वे विचार करने लगे कि इस पुण्य पुष्प को शिवजी के चरणों में अर्पित करने का सौभाग्य दिया जाए। जब ऋषि उस पुष्प के पास पहुंचे तो वह प्रसन्न अवश्य हुआ, परंतु आश्चर्यचकित होकर आगमन का कारण पूछा। जावालि बोले, ‘तुम्हें शिव-सामीप्य का श्रेय देने की इच्छा हुई, इसी अनुग्रह हेतु तुम्हें तोड़ने आया हूं।’ यह सुनकर पुष्प की प्रसन्नता खिन्नता में बदल गई। महर्षि ने कारण पूछा तो पुष्प ने कहा, ‘शिव-सामीप्य की लालसा करने वाले कम नहीं हैं। देवता को पुष्प जैसी तुच्छ वस्तु की न तो कमी है और न ही इच्छा। ऐसी स्थिति में यदि मैं तितलियों और मधुमक्खियों जैसे क्षुद्र जीवों की थोड़ी सेवा करूं, उन्हें मधुरस प्रदान करूं, तो क्या यह कम पुण्य है? जिस भूमि में मैं पला-बढ़ा, वहां की सेवा करना क्या अनुचित है?’ पुष्प की भाव-गंभीरता और नीति-निष्ठा को समझते हुए ऋषि ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसे यथास्थान छोड़कर वापस लौट गए।

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