मुंबई में आयोजित एक संगोष्ठी में देश-विदेश के अनेक विद्वान उपस्थित थे। विश्व की प्राचीन सभ्यता और वेद ज्ञान विषय पर विद्वान विचार व्यक्त कर रहे थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भाषण देने खड़े हुए तो सभागार तालियों से गूंज उठा। उन्होंने भारतीय और पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति की तुलना की। उपस्थित विद्वानजन उनके तथ्यपूर्ण प्रभावी भाषण को सुनकर स्तब्ध रह गए। भाषणों की समाप्ति के बाद संगोष्ठी के अध्यक्ष पारसी विद्वान ने कहा, ‘तिलक जी, आप राजनीति की दलदल में क्यों फंस गए। आपकी अनूठी प्रतिभा तथा अध्ययन का उपयोग तो विद्वानों के लिए साहित्य सृजन के कार्य में होना चाहिए।’ तिलक ने उत्तर दिया, ‘भारत भूमि बांझ नहीं है कि विद्वान पैदा होने बंद हो जाएंगे। मेरे जैसे अनेक अध्ययनशील देश में हैं और आगे होते रहेंगे। इस समय अपने देश का नागरिक होने के नाते मेरा सर्वोपरि धर्म अपनी मातृभूमि को स्वाधीन कराने में सहयोग देना है। इसीलिए मैं राजनीति में सक्रिय हूं।’ पारसी विद्वान लोकमान्य तिलक के राष्ट्रप्रेम को देखकर उनके समक्ष नतमस्तक हो गए।
प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार