आचार्य विनोबा भावे रेलगाड़ी से वर्धा जा रहे थे। उसी ट्रेन के डिब्बे में एक वृद्ध फ़कीर भी चढ़ा। फ़कीर ने भक्ति भाव से एक गीत गाना शुरू किया। उसकी मधुर आवाज़ और गीतों के भावों को सुनकर विनोबा जी भावविभोर हो उठे। डिब्बे में अन्य यात्री भी फ़कीर के गायन के जादू से मंत्रमुग्ध हो रहे थे। उसी डिब्बे में एक धनाढ्य जमींदार भी बैठा था। उसने अपने जेब से पांच रुपये का नोट निकाला और फ़कीर से बोला, ‘एक-एक पैसा इकट्ठा करने से भला क्या होगा? मैं रुपये देता हूं, बस शर्त यह है कि तुम भजन की जगह फिल्मी गीत गाओ।’ फ़कीर ने जवाब दिया, ‘मैंने नियम बना रखा है कि परमात्मा के अलावा किसी की भी वाणी से प्रशंसा नहीं करूंगा।’ जमींदार ने फिर सौ रुपये का नोट निकाला और कहा, ‘नियम-वियम को ताक पर रखो, यह सौ रुपये लो और फिल्मी गीत गाओ।’ फ़कीर ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, ‘आप एक लाख रुपये देंगे तब भी मैं भगवान की स्तुति के अलावा किसी और के गीत नहीं गाऊंगा।’ फ़कीर के इन शब्दों को सुनकर आचार्य विनोबा भावे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उठकर उसे गले से लगा लिया और बोले, ‘आज पता चला है कि सूरदास, तुलसीदास और मीराबाई की परंपरा के सच्चे भक्त अभी भी इस पृथ्वी पर हैं। वह भक्त जो लालच से प्रभावित नहीं होते, वही असली भक्त हैं।’
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