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ब्रह्मांड का दर्शन

एकदा
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चरक विषय की कक्षा चल रही थी। एक छात्र ने जिज्ञासा से पूछा, ‘आत्रेय ऋषि ने अग्निवेश को कहा था कि मनुष्य लोक का प्रतिबिंब है। इसका क्या अर्थ है?’ शिक्षक ने पुनर्वसु आत्रेय के उपदेशों का आधार लेते हुए कहा, ‘वत्स! यह मनुष्य केवल एक देह नहीं है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्पण है। जैसे बाहर का जगत है, वैसा ही एक विराट संसार उसके भीतर भी विद्यमान है। जिस प्रकार ब्रह्मांड में वायु उत्साह का स्रोत है, उसी प्रकार शरीर में प्राणवायु जीवन को गति देती है। विश्वदेव जैसे समस्त देवगण ब्रह्मांड में विविध कार्यों के संचालक हैं, वैसे ही हमारे शरीर में सभी इन्द्रियां और उनके विषय (स्वर, स्पर्श, रूप, रस, गंध) मिलकर जीवन को संपूर्णता प्रदान करते हैं। जैसे ब्रह्मांड में कहीं अंधकार है, वैसे मनुष्य में भी मोह का अंधकार होता है।’ शिष्य ने पूछा ‘क्या मेरे भीतर देवता भी हैं?’ शिक्षक ने कहा ‘तेरे भीतर इन्द्र का आत्मविश्वास है, रुद्र का रोष है, सोम की शीतलता है। तेरे हंसने पर अष्टवसुओं का सुख झलकता है। तेरा प्रेम अश्विनियों की शोभा से दमकता है। मनुष्य की बाल्यावस्था कृतयुग, यौवन त्रेता, वृद्धावस्था द्वापर और रोगों से घिरा काल कलियुग है और मृत्यु युगांत है।’ छात्र ने कहा, ‘गुरुदेव! मैं समझ गया कि ब्रह्मांड को जानने के लिए मुझे बाहर नहीं, भीतर देखना चाहिए।’

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