ईश्वर से एकाकार ही मुक्ति का द्वार
श्लोक में भगवान की शरण लेने, अपने कर्मों को उन्हें समर्पित करने और उन्हें अपने जीवन का केंद्र बनाने का विशिष्ट महत्व ही हम यह भी सीख सकते हैं कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य उच्च आध्यात्मिक चेतना प्राप्त करना...
श्लोक में भगवान की शरण लेने, अपने कर्मों को उन्हें समर्पित करने और उन्हें अपने जीवन का केंद्र बनाने का विशिष्ट महत्व ही हम यह भी सीख सकते हैं कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य उच्च आध्यात्मिक चेतना प्राप्त करना और ईश्वर के साथ एकाकार होना है।
राजेंद्र कुमार शर्मा
ईश्वर की प्राप्ति में सबसे महत्वपूर्ण क्या है? क्या ईश्वर को महंगे चढ़ावे की आवश्यकता होती है या फिर ईश्वर भक्ति के लिए घर की जिम्मेदारियां त्यागकर पहाड़ों, जंगलों आदि में जाने की आवश्यकता होती है। शायद ईश्वर को इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं होती। भगवान राम और भगवान कृष्ण सभी ने गृहस्थ जीवन में रहकर, हमें भी गृहस्थ जीवन में रहते हुए भक्ति करने का संदेश दिया। परमात्मा प्राप्ति में सबसे बड़ी पूजा साधक का ईश्वर के प्रति समर्पण है। समर्पण, बिना भय और शंका के। समर्पण, जिसमें सब कुछ परम-पिता परमात्मा को अर्पित कर दिया जाए।
ध्यान शक्ति से आध्यात्मिकता
भगवद्गीता के 18 अध्याय के 65 श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘हमेशा मेरा ही चिंतन करो और मेरे भक्त बनो। मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार तुम अवश्य ही मेरे पास आओगे या मुझे प्राप्त कर लोगे। मैं तुमसे यह वादा करता हूं क्योंकि तुम मेरे बहुत प्रिय मित्र हो। अर्थात् यहां भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्ण समर्पण के भाव को प्राथमिकता देते हुए कहा है कि हृदय से अपने आप को ईश्वर के चरणों में अर्पित कर दो। ईश्वर प्राप्ति का यही एक मार्ग सर्वोत्तम और ठीक है। यह भगवद्गीता के सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है जो हमें ईश्वर के प्रति भक्ति के महत्व और ईश्वर के साथ आध्यात्मिक एकता प्राप्त करने में ध्यान शक्ति को दर्शाता है। यहां आध्यात्मिकता से अभिप्राय आत्म तत्व का परम आत्म तत्व से मिलकर एक हो जाना है और वही सही अर्थों में ईश्वर की प्राप्ति है।
समर्पण से भक्ति
कहते हैं, एक बार यशोदा मां यमुना में दीपदान कर रही थी, वो देख रही थी कि कोई दीप आगे नहीं जा रहा, ध्यान से देखा तो कान्हा जी एक लकड़ी लेकर जल से सारे दीप बाहर निकाल रहे थे। तब मैया पूछती है लल्ला तुम ये क्या कर रहे हो? कान्हा कहते है, ‘मईया मैं इन दीप को डूबने से बचा रहा हूं।’ ये सुनकर मईया हंसी और बोली, ‘लल्ला तू किस-किस को ऐसे बचाएगा...?’ ये सुनकर कान्हा जी ने बहुत सुंदर जवाब दिया, ‘मां, जो मेरी ओर आएंगे उनको बचाऊंगा।’ इसलिए हमेशा भगवान के सान्निध्य में रहिए। यह प्रसंग इंगित करता है कि ईश्वर भी साधक के प्रेम के भूखे होते हैं, उसके पूर्ण समर्पण के अभिलाषी होते हैं। परमात्मा भी चाहता है कि उसका भक्त उस पर विश्वास कर, अपने हर दुख-दर्द को उसे समर्पित कर दे अर्थात् अपने आप को समर्पण कर दे। हम ईश्वर भक्ति तो करते हैं पर समर्पण के भाव से वंचित रह जाते हैं। यदि ‘मैं करता हूं’ के भाव के स्थान पर ‘तुम करते हो’ का भाव आ जाए तो समझो सभी पीड़ाओं का अंत हो गया। इस भाव का मूल ‘समर्पण’ ही है।
उच्च आध्यात्मिक चेतना प्राप्ति
यह हमें सिखाता है कि अपने मन को ईश्वर पर केंद्रित करके, उनके प्रति समर्पण और भक्ति का अभ्यास करके, हम अपने सच्चे स्वरूप को जानने और ईश्वर के साथ एकता प्राप्त करने के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वरीय शक्ति हम सब के अंदर है जिसे हम बाहर ढूंढ़ते फिर रहे हैं, यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे कस्तूरी कुंडलि बसै मृग ढूंढ़े बन माहि, ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाहि। अर्थात् मनुष्य अपने इष्ट को दुनिया में खोजता है, वह उस परम शक्ति अपने भीतर महसूस नहीं करता है जो स्वयं उसी के भीतर मौजूद है। अलग-अलग धार्मिक स्थल बनाने के पीछे का एक ही आध्यात्मिक उद्देश्य रहा है कि इन स्थलों की सकारात्मक ऊर्जा और आध्यात्मिक माहौल में बैठकर हम अपने आध्यात्मिकता मार्ग पर प्रगति हासिल कर सकें। आध्यात्मिकता के मूल तत्व को समझ सकें।
श्लोक में भगवान की शरण लेने, अपने कर्मों को उन्हें समर्पित करने और उन्हें अपने जीवन का केंद्र बनाने का विशिष्ट महत्व है। हम यह भी सीख सकते हैं कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य उच्च आध्यात्मिक चेतना प्राप्त करना और ईश्वर के साथ एकाकार होना है।