विनोबा जी ने सादगी और तप को जीवन बना लिया था। उनके पास दान देने वाले आते और समाज के हित के लिए धन देते। एक बार एक धनाढ्य आया और एक हजार रुपये नकद देने लगा। विनोबा ने आभार व्यक्त किया और फिर एक मजदूर की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, जिसने केवल एक रुपया दान दिया था। धनाढ्य को यह बात अखर गई। विनोबा ने कहा, ‘देखो, किसके पास कितना धन है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। असली महत्व इस बात का है कि व्यक्ति का धन के प्रति दृष्टिकोण क्या है और उसका उपयोग किस दिशा में हो रहा है। आप तो सोने, चांदी, हीरे-मोती से लदे हुए हैं, जबकि इस मजदूर ने सोलह दिन की मजदूरी मुझे दे दी है।’ प्रदर्शन और विलासिता में खर्च होने वाला धन का अपव्यय समाज को अंधकार की ओर ले जाता है। इस प्रकार की आर्थिक सोच और संरचना से क्रूरता बढ़ती है, भ्रष्टाचार उभरता है, हिंसा को बल मिलता है और मानवीय संवेदनाएं सिकुड़ जाती हैं। जब धनाढ्य ने यह सुना, तो जाते समय वह विनोबा के साथ उस मजदूर को भी भावविभोर होकर प्रणाम करने लगा।
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे