एक बार बंगाल के कुछ युवकों ने कलकत्ता में एक नाटक का आयोजन किया। नाटक के दर्शकों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को खास तौर पर बुलाया गया था। अभिनय के मध्य एक दृश्य आता है- एक फिरंगी अफसर एक भारतीय सिपाही का पीछा करता है। थोड़ी देर तक पीछा करके वह सिपाही को पकड़ लेता है। उसे गाली देना और पीटना शुरू कर देता है। यह दृश्य देखकर दर्शकों के बीच बैठे हुए नेताजी को असीम राष्ट्रभक्ति के चलते भावावेश में हकीकत का अहसास हुआ। वे ऐसा कटु अपमान सहन न कर सके। वे क्रोध में तमतमा कर रंगमंच पर चढ़ गए और अंग्रेज अधिकारी को पकड़कर पीटने लगे। एक क्षण को, अंग्रेज अधिकारी का अभिनय करने वाला अभिनेता स्तब्ध रह गया, पर दूसरे ही क्षण वह संभल गया। उसकी मुखमुद्रा खिल उठी। वह खुशी-खुशी मार खाता रहा। जब नेताजी ने उसे मारना बंद किया तो अभिनेता ने नेताजी के हाथ से जूता अपने हाथ में ले लिया और उसे मस्तक से लगाकर कह उठा कि यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार है। इस वक्तव्य को सुनकर नेताजी सन्न रह गये। वे तत्क्षण समझ गये कि यह तो रंगमंच पर अभिनय चल रहा था, जिसे मैंने सत्य समझ लिया। नेताजी ने अपनी भूल स्वीकार की और अंग्रेज अधिकारी का अभिनय करने वाले भारतीय अभिनेता से क्षमा मांगकर उसकी पीठ थपथपाई।
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