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अशुद्ध अन्न से दूषित मन

एकदा
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आर्यसमाज के सुविख्यात शिक्षाविद् लाहौर से हरिद्वार आए हुए थे। वे मौन आश्रम में ठहरे हुए थे। वहां एक वानप्रस्थी भी रुके हुए थे जो प्रतिदिन प्रातः तीन बजे उठकर ध्यानावस्थित हो जाया करते थे। एक दिन वह महात्मा अचानक हंसराज जी के पास पहंुचे और जोर-जोर से रोने लगे। उन्होंने कहा मैं तो लुट गया। मेरे वर्षों का संचित पुण्य नष्ट हो गया। मैं रोज ध्यान करता हूं, मुझे बहुत आनन्द आता है। मुझे ध्यान में एक आनंदस्वरूप ज्योति दिखाई देती थी। आज उसकी जगह लाल कपड़े पहने एक युवती दिखाई दी। मैंने ध्यानावस्थित होने का प्रयास किया पर बार-बार मुझे वही दिखाई दी। हंसराज जी ने पूछा कि तुम कल कहीं आश्रम से बाहर गये थे। महात्माजी बोले कि मैं एक साधु के कहने पर एक भण्डारे में गया था। हंसराज जी ने कहा, पता लगाओ कि वह भण्डारा किसने लगाया था। पता चला कि एक दुष्टात्मा, जिसने अपनी बेटी किसी को दस हजार रुपये में बेची थी, ने पाप से बचने के लिए भण्डारा लगाया था। हंसराज जी बोले, अधर्म और पाप की कमाई के पैसों से किये गये भण्डारे का अन्न ग्रहण करने से तुम्हारे ध्यान में विघ्न पड़ा। इसके प्रभाव को नष्ट करने के लिए सवालाख गायत्री जाप करो।

प्रस्तुति : प्रो. अनूप कुमार गक्खड़

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