Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

ध्यान ही आत्मा का परमात्मा से मिलन का मार्ग

राजेंद्र कुमार शर्मा मौन से मुक्ति की धारणा कितनी तार्किक और तथ्यपरक है इसके लिए हमें मोक्ष को समझना होगा। मोक्ष वह आध्यात्मिक चढ़ाई का वह सोपान है जहां पहुंचने के बाद, फिर दोबारा जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में नहीं आना...

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

राजेंद्र कुमार शर्मा

मौन से मुक्ति की धारणा कितनी तार्किक और तथ्यपरक है इसके लिए हमें मोक्ष को समझना होगा। मोक्ष वह आध्यात्मिक चढ़ाई का वह सोपान है जहां पहुंचने के बाद, फिर दोबारा जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में नहीं आना पड़ता। मोक्ष और मुक्ति सिर्फ मनुष्य योनि में ही संभव हो पाती है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि देवी-देवता भी मनुष्य योनि को तरसते हैं। शब्द या धुन भक्ति, मृत्युलोक में ही संभव होती है और वो भी सिर्फ मनुष्यों के लिए ही है, क्योंकि वही एक विवेकी जीव है जो शब्द या कीर्तन के महत्व को समझकर, गुरु के सान्निध्य में आध्यात्मिक चढ़ाई कर आत्मा का मिलन परमात्मा से करवा, हमेशा के लिए जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाता है। मूलत: आत्मा खुद अजर, अमर, अविनाशी और परम आनंद में रहने वाला तत्व है, वह मोक्ष स्वरूप ही है। आत्मा को परमात्मा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

Advertisement

क्या है जीव या जीवात्मा

जीव, आत्मा (चेतन तत्व) और स्थूल शरीर (जड़ तत्व) मिलकर बना है इसीलिए इसे जीवात्मा भी कहा गया है। चेतन देखने और जानने वाला तत्व है जबकि जड़ तत्व क्रियाशील है। दोनों के मिलने से अहम‍् का जन्म होता है जिससे स्थूल शरीर अपने को कर्ता मानने लगता है और कहता है कि मैं कर रहा हूं या फिर कि मैं जानता हूं या मैंने जाना और मैं देखता हूं या मैंने देखा या मैंने किया या मैं कर रहा हूं। जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है, शरीर उस निराकार शक्ति द्वारा चलता है जिसे हम परमात्मा कहते हैं। परंतु अहम‍् उस परमात्मा की जगह ले लेता है और कहता है कि ‘मैं कर रहा हूं’ यही से कर्मों का बंधन शुरू हो जाता है। जो पूरे जीवन चलता है, कर्मों का फल भुगतने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है और मृत्यु को प्राप्त होना पड़ता है। हर बार जन्म के साथ ही नए कर्म बंधन जुड़ने शुरू हो जाते हैं।

Advertisement

युगों का चक्कर

संतों के अनुसार एक युग के बाद दूसरा युग चक्कर लगा रहे हैं। सतयुग, त्रेता, द्वापर और फिर कलियुग एक के बाद दूसरा आता है। कई महाभारत, कई रामायण हो चुकी हैं। इसी संदर्भ में, हनुमान जी की आंखें खोलने के लिए भगवान राम ने अपनी अंगूठी पृथ्वी में पड़ी दरार से पाताल लोक में पैर से धकेल दी और जब हनुमान उसे वापस लेने पाताल लोक गए तो देख कर चकित रह गए कि उसके प्रभु की एक नहीं बल्कि अनेक अंगुठियां वहां पड़ी थीं अर्थात‌् भगवान राम हर त्रेतायुग में आते रहे हैं। सतयुग को छोड़कर त्रेता और द्वापर युग में मोक्ष पाने के लिए कठिन तपस्याएं करनी पड़ती थीं। पर कलियुग में मोक्ष प्राप्ति के लिए कीर्तन को प्रधान माना गया है अर्थात‍् ब्रह्मांड का जन्मदाता ‘शब्द’ या ‘ध्वनि’ का सिमरन ही मोक्ष की प्राप्ति का एक मात्र सहारा है।

मौन से मुक्ति?

कुछ घंटों का मौन व्रत शायद हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए हितकर हो सकता है। परंतु मौन व्रत की तपस्या से मुक्ति की कामना करना अपने को अंधेरे में रखना हैं। मौन धारण कुछ मिनटों या घंटों के लिए संभव है पर कुछ दिनों या महीनों के लिए मौन व्रत धारण करना स्वयं के मस्तिष्क पर बोझ बढ़ाना है। जब आप बोलते नहीं है तो आप अपनी बात कागज पर लिखकर संप्रेषण शुरू कर देते हैं जिससे आपके शरीर और मस्तिष्क को अधिक कार्य करना पड़ता है। संतों का मानना है कि यदि मोक्ष या मुक्ति के लिए मौन प्रधान होता तो इस धरती पर न तो रामायण की रचना होती और न ही गीता के उपदेश लिखे जाते। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश नि:संदेह बोलकर ही दिया होगा, जो मौन द्वारा संभव नहीं होता। मंत्रों का उच्चारण बोलकर ही हुआ होगा, मौन द्वारा संभव नहीं हो सकता था। अतः मौन को मुक्ति का साधन मानना न्यायोचित नहीं हो सकता।

कर्म बंधन का कारण

जीवात्मा के कर्म-बंधन का कारण मनुष्य का अहम‍् और इस अहम‍‍् के पीछे की अज्ञानता है और इस अज्ञानता का निवारण ज्ञान से होता है और ज्ञान संतों या पूर्ण गुरु की शरण में जाने से प्राप्त होता है। जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो गई, वो आत्म जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो गई। केवल ज्ञानी संत और गुरु ही होते है जो देहधारी होकर भी शरीर से अलग सदैव सिर्फ आत्मा में ही रहते है। कुछ विद्वानों का मानना है कि ऐसे संत की उपस्थिति सिर्फ सतयुग में संभव थी, कलियुग में ऐसे पूर्ण गुरु और संत का मिलना मुश्किल है। परंतु अगर ऐसा होता तो कलियुग में कीर्तन प्रधाना की मोक्ष प्राप्ति की युक्ति का अस्तित्व भी नहीं होता। कलियुग में भी ऐसे पांच शब्दों के भेदी संत हमारे बीच हैं बस जरूरत उन्हें खोजने और उनका अनुसरण करने की है। उनसे शब्द ज्ञान प्राप्त कर, बिना संसार को त्यागे शब्द भक्ति और ध्यान से कर्म-बंधन से मुक्त हो सकता है।

मौन मुक्ति का परोक्ष मार्ग

मौन से एकाग्रता का गहन संबंध है, कुछ क्षणों या घंटों का मौन असीम आत्मिक और मानसिक शांति प्रदान करता है। यही शांति एकाग्रता का मार्ग प्रशस्त करती है और एकाग्रता, व्यक्ति को ध्यान में ले जाती है और ध्यान ही आत्मा का शब्द और प्रकाश रूपी परमात्मा से मिलन करवाता है। यही शब्द या धुन भक्ति मनुष्य के कर्म-बंधन तोड़ने में मददगार साबित होती है। व्यक्ति अच्छे और बुरे सभी प्रकार के कर्म-बंधन से मुक्त हो, मोक्ष को प्राप्त करता है। मौन रहना मुक्ति या मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर सकता है परंतु स्वयं मुक्ति प्रदान नहीं कर सकता। तपस्या ‘शब्द’ और ‘धुन’ की हो न कि मौन की, अंतिम लक्ष्य ‘शब्द’ या ‘धुन’ को सुनना है और सोलह हजार सूर्यों के प्रकाश समान परमात्मा के दर्शन करना है।

Advertisement
×