एक व्यक्ति की तपस्या से प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उससे वरदान मांगने के लिए कहा। तपस्वी बोला, ‘अपना यह वज्र मुझे दे दें। मैं इसकी सहायता से चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता हूं।’ उसकी बात सुनकर इंद्रदेव रुष्ट होकर वापस देवलोक चले गए। उधर वज्र न मिल पाने की वजह से तपस्वी ने अपना शरीर त्याग दिया। इंद्रदेव तक जब यह समाचार पहुंचा तो वे दुःखी हो गए। उन्हें लगा कि तपस्वी की मनोकामना पूर्ण कर देते तो बेहतर होता। कुछ समय बाद एक और तपस्वी ने इंद्रदेव की वैसी ही आराधना की। अबकी बार वे अपना वज्र साथ ही लेकर गए और उसे तपस्वी के आगे रख दिया। यह देखकर तपस्वी ने पूछा, ‘देवराज, अपने इस वज्र को मुझे क्यों दे रहे हैं?’ इस पर इंद्र ने पूर्व तपस्वी का सारा वृत्तांत कह सुनाया। तपस्वी ने वज्र वापस इंद्र को लौटाते हुए निवेदन किया, ‘हे देवराज! ऐसे वरदान से भला क्या लाभ, जिसे पाकर मन में अहंकार भरी तृष्णा जगे और न मिलने पर निराशाग्रस्त मरण का वरण करना पड़े। मुझे तो ऐसा वर दीजिए कि मैं उपलब्ध तप-शक्ति को सत्प्रयोजनों के निमित्त नियोजित कर सकूं।’ इंद्र उसे इच्छित वर देकर चले गए। उपासना वही सार्थक है, जो श्रेष्ठ उद्देश्य को लेकर की जाए।
प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार