समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक बार किसी छोटी-सी दुकान में चारपाई पर बैठकर दुकानदार से सहज भाव से बातें कर रहे थे। तभी उनका एक मित्र वहां आ पहुंचा। उस मित्र ने ईश्वरचंद्र जी को इशारे से बाहर बुलाया और कहा, ‘इस तरह छोटे लोगों के साथ क्यों बैठते हो? अपनी मान-मर्यादा का कुछ तो ख्याल रखा करो।’ यह सुनकर ईश्वरचंद्र जी ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘तो फिर तुम क्यों मेरे जैसे 'छोटे' आदमी के साथ उठते-बैठते हो?’ मित्र ने कहा, ‘तुम तो मेरे मित्र हो... और मित्रता में कोई छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब नहीं होता।’ यह उत्तर सुनकर ईश्वरचंद्र मुस्कराए और बोले, ‘यही बात तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं कि मित्रता में कोई अमीर-गरीब या छोटा-बड़ा नहीं होता। वह दुकानदार मेरा मित्र है और मुझे उतना ही प्रिय है, जितने तुम। अब बताओ, उससे घुल-मिलकर बातें करके मैंने क्या गलती की?’ ईश्वरचंद्र जी के इस सवाल ने उनके मित्र को बेहद शर्मिंदा कर दिया।
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