दीपचंद भारद्वाज
अत्यधिक अपेक्षाओं को हमारे मनीषियों ने सौदेबाजी की संज्ञा दी है, जो हम भगवान से लेकर संतान, मित्रता जैसे सभी संबंधों में करते हैं। ये अत्यधिक अपेक्षाएं जीवन की शांति और आनंद में बाधक बनती हैं…
मनुष्य कामनाओं, अपेक्षाओं का पुतला है। प्रति पल हमारे मानस पटल पर अपेक्षाओं का चक्कर घूमता रहता है। यह सत्य है कि मनुष्य को अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कई बार अपने सहयोगी या मित्रों पर भी निर्भर रहना पड़ता है। अपेक्षा का दायरा जब तक सीमित एवं वास्तविकता के धरातल से जुड़ा होता है, तभी तक ठीक है। जब हम अपने मन में दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा कर लेते हैं, तभी हम अपनी मानसिक शांति एवं आनंद को भी दूसरों के अधीन कर देते हैं। अपेक्षा, यानी उसके लिए मैंने ऐसा किया तो बदले में मुझे यह मिलना चाहिए। अत्यधिक अपेक्षाओं के चक्रव्यूह में उलझ कर अधिकांश लोग आजीवन भिक्षापात्र लिए घूम रहे होते हैं कि अन्य लोग आएं और उसमें समय, संवेदना, उपहार, प्रेम जैसे भाव प्रदान करें। ऐसी अपेक्षा को हमारे मनीषियों ने सौदेबाजी की संज्ञा दी है, जो हम भगवान से लेकर संतान, मित्रता पति, पत्नी जैसे सभी संबंधों में करते हैं। मनुष्य का मस्तिष्क हर समय कंप्यूटर की तरह हिसाब-किताब रख रहा होता है कि किसने हमारी भावना का प्रतिकार अपेक्षा के मुताबिक किया और किसने नहीं किया। उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता का अनुपात भी घटता-बढ़ता रहता है। मनुष्य इसी अपेक्षा के ताने-बाने में उलझ कर अपने जीवन की शांति को छिन्न-भिन्न कर देता है।
रिश्तों में खटास का मूल कारण
विलियम शेक्सपियर का चिंतन है, ‘अधिकतर लोगों के दुख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा है। अत्यधिक अपेक्षा आपसी रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ प्रत्येक मनुष्य को यह बात भली-भांति समझ लेनी चाहिए कि हम स्वयं पूर्ण नहीं हैं तो दूसरा कैसे पूर्ण हो सकता है। इस धरती पर शायद ही कोई मनुष्य हो जो हमारी सभी अपेक्षाओं की पूर्ति कर दे। वास्तव में हमारे दुख, मानसिक तनाव हमारी गलत अपेक्षाओं का परिणाम होते हैं। हमें यह बात विवेकपूर्वक समझ लेनी चाहिए कि हम इस दुनिया में दूसरों की अपेक्षा के अनुसार जीने नहीं आए हैं, ऐसे ही दूसरे भी हमारी अपेक्षाओं पर जीवन नहीं जी सकते। यही अपेक्षा पारिवारिक विघटन का मूल कारण है। हमारे संबंधों में भी खटास इसी से आती है। पुत्र की पिता से, पत्नी की पति से, भाई की बहन से, पूरा परिवार इसी अपेक्षा की भावना से ग्रस्त है और जब वह अपेक्षा पूर्ण नहीं होती, वहीं से आपसी रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है।
मनुष्य के जीवन में यदि आनंद व शांति नहीं है, तो उसकी सारी भौतिक समृद्धि व्यर्थ है। ‘लाइफ बैलेंस इंस्टीट्यूट’ के संस्थापक फिलिप मोफिट लिखते हैं, ‘अपेक्षाओं का निर्धारण अपनी सीमाओं में रह कर करें। अपनी अपेक्षाओं में कटौती करें। अपेक्षाओं के मिथ्या भ्रम जाल से निकलकर स्वयं पर निर्भर रहें। जीवन में सुख, प्रसन्नता का यही मंत्र है।’
महात्मा बुद्ध ने मन में पलने वाली इसी अत्यधिक अपेक्षा को कामना या इच्छा की परिभाषा देते हुए कहा है, ‘यही मनुष्य के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित करके मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’
सशक्त बनें, आत्मनिर्भर बनें
हर व्यक्ति की योग्यता अलग है और प्रत्येक व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण भी अलग है। यह आवश्यक नहीं है कि अमुक व्यक्ति हमारे विचार से सहमत हो। यही अपेक्षा है। जब यह अपेक्षा पूरी नहीं होती तो उसी समय हमारा मानसिक संतुलन भी बिगड़ जाता है। हमारी अपेक्षाओं की उड़ान अप्रत्याशित नहीं होनी चाहिए। विवेकी मनुष्य वही है जो अपेक्षा की भी उपेक्षा करके वास्तविकता के धरातल पर अपना जीवन जीता है। इस अत्यधिक अपेक्षा रूपी दलदल में धंसने से बचने का उपाय है स्वयं अपने जीवन की राह चुनें। अपने लक्ष्य के प्रति स्वयं जाग्रत रहें। और अपनी अपेक्षा को दूसरों के कंधों पर न लादकर स्वयं योग्य एवं आत्मनिर्भर बनें। आत्मविश्वास जाग्रत करें। दूसरों के सामने अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति की भिक्षा न मांग कर स्वयं सशक्त बनें, यही आनंदमय जीवन का सूत्र है। हमारा प्रत्येक दिन एक अपेक्षा से शुरू होता है और जब वह पूर्ण नहीं होती तो दुख के अनुभव के साथ समाप्त होता है। अत्यधिक अपेक्षाओं का यही चक्रवात मनुष्य की मानसिक शांति एवं आनंद को तहस-नहस कर देता है। जो दूसरों के माध्यम से भी पूर्ण नहीं हो सकती, ऐसी व्यर्थ की अपेक्षाओं को मन में आने ही नहीं दें। ऐसी प्रवृत्ति से ही जीवन में स्थाई शांति एवं आनंद का संचार होता है।