रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य थे– मथुरा बाबू। एक बार उन्होंने बड़े प्रेम से एक सुंदर मंदिर बनवाया और उसमें भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना करवाई। मूर्ति को उन्होंने बहुमूल्य वस्त्रों और आभूषणों से सजाया। एक रात कुछ चोर मंदिर में घुसे और मूर्ति से सारे आभूषण चुरा ले गए। मथुरा बाबू दुखी होकर दौड़े-दौड़े मंदिर पहुंचे। मूर्ति के सामने खड़े होकर उन्होंने भावुक होकर कहा, ‘भगवान! आपके हाथों में गदा और चक्र हैं। फिर भी आप चोरों को नहीं रोक पाए? आपसे तो हम मनुष्य ही बेहतर हैं, कम से कम विरोध तो करते हैं!’ रामकृष्ण परमहंस वहीं खड़े यह सब सुन रहे थे। वे मुस्कुराते हुए बोले, ‘मथुरा बाबू, भगवान को तुम्हारी तरह गहनों का लोभ नहीं है, जो दिन-रात जागकर उनकी चौकीदारी करें। उन्हें किसी चीज की कमी नहीं। जो खुद सृष्टिकर्ता हैं, वे चंद आभूषणों के लिए अपने चक्र का प्रयोग क्यों करते?’
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