एक बार एक युवा विद्वान वॉल्टेयर से मिलने पहुंचा। उसके मन में असंख्य प्रश्न थे। वह बोला, ‘सर, मैं दुनिया को समझना चाहता हूं, पर जितना पढ़ता हूं, उतना भ्रम बढ़ता जाता है। मन अशांत हो गया है।’ वॉल्टेयर उसे अपने घर के पिछवाड़े ले गया, जहां एक शांत-सा बाग था। वहां कुछ पौधे तंदुरुस्त थे और कुछ मुरझाए हुए। उन्होंने पूछा, ‘तुम्हें क्या दिखता है?’ युवक ने कहा, ‘कुछ पौधे खूब बढ़ रहे हैं और कुछ सूखे पड़े हैं।’ वॉल्टेयर मुस्कुराए, ‘लेकिन इस बाग को देखो, यह कभी शिकायत नहीं करता कि एक फूल कम है, या एक पत्ता पीला हुआ।’ फिर वे झुककर मिट्टी को स्पर्श करते हुए बोले, ‘प्रकृति का नियम है, जो चीज तुम्हारे हाथ में है, उसे संवारो; जो नहीं है, उसे जाने दो।’ युवक चुपचाप सुनता रहा। वॉल्टेयर ने समझाया, ‘तुम दुनिया को एक साथ समझना चाहते हो। पर ज्ञान एक बाग की तरह है, उसे हर दिन थोड़ा-थोड़ा सींचना पड़ता है। अगर तुम सबकुछ एक ही दिन चाहोगे, तो भ्रम और बढ़ेगा।’ युवक के चेहरे पर शांति लौट आई। उसने पहली बार समझा कि पूर्वज्ञान नहीं, धैर्य सच्चा प्रकाश देता है।
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