एक संत अपने शिष्य के साथ वन में घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि सामने से कुलाचें भरता हिरण आया और जल्दी ही गायब हो गया। कुछ ही क्षणों बाद खरगोश का जोड़ा मस्ती के साथ दौड़ता हुआ दिखाई पड़ा। इसी बीच एक व्यक्ति हाथ में लाठी लिए हुए उधर से निकला। वह बड़ी मुश्किल से चल रहा था। झुर्रियों से भरा उसका पीला चेहरा देखकर शिष्य दुखित हो उठा। उसने संत जी से पूछा, ‘महाराज, हिरण, खरगोश और अन्य पशु-पक्षी कभी बीमार नहीं होते, वे मस्ती में कुलाचें भरते हुए दिखाई पड़ते हैं। जबकि मनुष्य प्रायः किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त दिखाई देते हैं। इसका मुख्य कारण क्या है?’ संत जी ने शिष्य को समझाया, ‘वत्स, पशु-पक्षी प्रकृति के अनुसार चलते हैं। जैसे खरगोश और हिरण भूख लगने पर स्वाद की चिंता किए बिना हरी-हरी घास खाकर पेट भर लेते हैं, और दौड़-दौड़कर खाया-पिया पचा लेते हैं, इसलिए वे कभी बीमार नहीं होते। जबकि मनुष्य ने ‘जीने के लिए खाने’ के बजाय ‘स्वादिष्ट और चटपटे पदार्थ खाना जीने’ का उद्देश्य बना लिया है। वह अपनी जिह्वा और अन्य इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, यही उसकी शारीरिक और मानसिक विकृति का मुख्य कारण बनता है।’
प्रस्तुति : मुकेश शर्मा