भगवद् गीता, युद्धक्षेत्र के बीच श्रीकृष्ण द्वारा प्रकट किए आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ है। अपने ही बंधुओं के संहार की पृष्ठभूमि, जीवन के सतत नैतिक संघर्षों का प्रतीक है। गीता का मुख्य उद्देश्य मानव को उसकी वास्तविक प्रकृति के प्रति जागरूक करना और उसे नेक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना है। इस पवित्र ग्रंथ की कुछ मूलभूत शिक्षाओं का सारांश इस तरह है…
विजय सिंगल
मानव जीवन दुविधाओं एवं चुनौतियों से भरा है। परस्पर युद्धरत सेनाओं के बीच श्रीकृष्ण की सदा ताजा रहने वाली मुस्कान मानव जाति को शाश्वत आशा का संदेश देती है। कोई न कोई बहाना बनाकर पलायन करने के बजाय, मनुष्य को हर परिस्थिति का सामना डटकर करना चाहिए। अपने कर्तव्य-कर्मों को त्यागने से व्यक्ति भौतिक अवनति एवं आध्यात्मिक पतन की ओर चला जाता है।
- मनुष्य को सदा याद रखना चाहिए कि उसकी मूल प्रकृति आत्मा है, जो शाश्वत और अविनाशी है। आत्मा न कभी पैदा होती है और न ही कभी मरती है। जब देह की मृत्यु होती है, तब भी उसका नाश नहीं होता। देहधारी आत्मा (जीवात्मा) पुरानी देह का त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। इसलिए, भय या शोक का कोई कारण ही नहीं है।
- जीवात्मा परमात्मा का एक अभिन्न अंग है। मनुष्य जब इस एकता का अहसास कर लेता है, तब उसका जीवन सफल हो जाता है।
- परिवर्तन प्रकृति का नियम है। एक बुद्धिमान व्यक्ति परिवर्तन से भ्रमित नहीं होता। सुख और दुख सदा के लिए नहीं रहते। मनुष्य को इन्हें सहन करना सीखना चाहिए। सांसारिक वस्तुओं से प्राप्त सुख क्षणिक होते हैं।
- मनुष्य को केवल कर्म करने का अधिकार है, उसके फल पर नहीं, इसलिए व्यक्ति को अपने काम पर ध्यान देना चाहिए और परिणामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति को केवल कर्मफल की आशा से कर्म नहीं करना चाहिए। कर्तव्य निर्वाह के लिए कार्य करना अधिक तृप्ति एवं आनंद प्रदान करता है। अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक से करने के पश्चात व्यक्ति को बाकी सब कुछ ईश्वर की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। परिणाम को शालीनतापूर्वक स्वीकार करें और आगे बढ़ें।
- यह समझना आवश्यक है कि समस्त कार्य गुणों (भौतिक प्रकृति के विविध प्रकार) की परस्पर क्रिया से उत्पन्न होते हैं। देहधारी आत्मा के रूप में मनुष्य कर्मों का कर्ता नहीं है। इसलिए व्यक्ति को किसी बंधन में नहीं बंधना चाहिए। अपनी चेतना को आत्मा में स्थिर करके उसे अपने सभी कार्य परमात्मा को समर्पित कर देने चाहिए।
- सभी कार्यों को बिना किसी लगाव के और बदले में किसी अपेक्षा के बगैर; कर्तव्य निर्वाह के रूप में किया जाना चाहिए। कर्तव्य-कर्म (कोई भी कार्य जिसे किया जाना चाहिए) का परित्याग निश्चय ही उचित नहीं है। किसी भी देहधारी प्राणी के लिए सभी कार्यों से पूर्णतः निवृत्त होना वास्तव में संभव नहीं है। परन्तु जो व्यक्ति कर्मफल का त्याग कर देता है, वह त्यागी पुरुष कहलाता है।
- विभिन्न विषयों के प्रति रुचि या अरुचि होना प्राकृतिक है। इसलिए मनुष्य के मन में इच्छाएं पैदा होना स्वाभाविक है, लेकिन इच्छाओं का दास होने से कभी शांति प्राप्त नहीं होती।
- जीवन में संतुलन अहम भूमिका निभाता है। जो पुरुष खाने, सोने, जागने तथा आमोद-प्रमोद में नियमित रहता है और कर्मों की यथा-योग्य चेष्टा करता है; वह सब दुखों से छुटकारा पा लेता है।
- जो अज्ञानी है, संशयी प्रकृति का है तथा जिसमें आस्था का अभाव है; वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है। ऐसे संदेहवादी व्यक्ति को न तो इस लोक में कोई सुख प्राप्त हो सकता है और न ही परलोक में। अतः मनुष्य को विवेक के द्वारा समस्त शंकाओं को दूर कर लेना चाहिये।
- मनुष्य स्वयं ही अपना सबसे अच्छा दोस्त होता है और सबसे बड़ा दुश्मन भी। वह अपने मन के द्वारा अपने आप को ऊंचा उठा सकता है, या नीचा गिरा सकता है। जिसका मन अनुशासित नहीं है, उसके पास न तो स्थिर विवेक हो सकता है और न ही एकाग्रता की शक्ति। मन अपने स्वभाव से ही चंचल, हठी, बलवान, अशांत, बेचैन तथा मुश्किल से काबू में आने वाला है; फिर भी इसे अनासक्त भाव के निरंतर अभ्यास से नियंत्रित किया जा सकता है।